

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने गर्भपात के अधिकार पर बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि महिला की सहमति सर्वोपरि है। कोर्ट ने एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता को बच्चा जन्म देने की अनुमति दी, साथ ही उसकी देखरेख बाल कल्याण समिति को सौंपी।
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Madhya Pradesh: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में यह स्पष्ट किया है कि गर्भपात या प्रसव जैसे प्रजनन संबंधी मामलों में महिला या किशोरी की सहमति ही सर्वोपरि है। कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार देता है, जिसमें प्रजनन स्वतंत्रता भी शामिल है।
इस फैसले के केंद्र में मंडला जिले की एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता है, जो गर्भवती हो गई थी। जिला सत्र न्यायालय नैनपुर ने मामले की गंभीरता को देखते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट को पत्र लिखा था, जिस पर न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा की एकलपीठ ने स्वतः संज्ञान याचिका (सुओ मोटो पेटिशन) के रूप में सुनवाई की।
मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट
कोर्ट के आदेश पर गठित मेडिकल बोर्ड ने रिपोर्ट में बताया कि पीड़िता की उम्र 16 साल 6 महीने है और गर्भावधि 28 से 30 सप्ताह के बीच है। इस स्टेज पर गर्भपात करना पीड़िता के जीवन के लिए घातक हो सकता है। इसके अलावा, पीड़िता ने स्वयं और उसके माता-पिता ने भी कोर्ट के समक्ष यह बयान दिया कि वे गर्भपात नहीं चाहते।
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हालांकि, माता-पिता ने यह भी स्पष्ट किया कि वे पीड़िता के बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे और उसे अपने साथ नहीं रख पाएंगे, जबकि पीड़िता ने कोर्ट में कहा कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है और उसे अपने पास रखना चाहती है।
हाई कोर्ट का फैसला: सम्मान और सुरक्षा दोनों जरूरी
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि पीड़िता को अपनी इच्छा के अनुसार बच्चा जन्म देने की अनुमति दी जाती है। कोर्ट ने कहा कि गर्भवती महिला की स्वायत्तता, गरिमा और निर्णय लेने की स्वतंत्रता सर्वोपरि है।
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कोर्ट ने आदेश दिया कि पीड़िता को बाल कल्याण समिति (CWC) के संरक्षण में रखा जाएगा और वह वयस्क होने तक सीडब्ल्यूसी के निगरानी में रहेगी। साथ ही, उसके प्रसव और चिकित्सा संबंधी सभी खर्चे राज्य सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे।
संवेदनशील मामलों में अधिकारों की रक्षा ज़रूरी
इस फैसले को महिला अधिकारों और प्रजनन स्वतंत्रता की दिशा में एक मील का पत्थर माना जा रहा है। यह विशेष रूप से उन मामलों में महत्वपूर्ण है, जहां नाबालिग यौन उत्पीड़न की शिकार होती हैं और बाद में गर्भवती हो जाती हैं। ऐसे मामलों में पीड़िता की राय और उसकी इच्छा को अनदेखा करना न केवल उसके अधिकारों का उल्लंघन होता है, बल्कि उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को भी खतरे में डाल सकता है।
कानूनी विश्लेषण
संविधान का अनुच्छेद 21 केवल जीवन जीने का अधिकार नहीं देता, बल्कि यह एक गरिमापूर्ण, आत्मनिर्भर और सुरक्षित जीवन की गारंटी भी देता है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी भी महिला या किशोरी को यह अधिकार है कि वह अपने शरीर और उससे जुड़े निर्णयों को खुद ले, बशर्ते वह चिकित्सकीय रूप से सक्षम हो।