बाल देखभाल अवकाश पर सुप्रीम कोर्ट का रुख: न्यायिक अधिकारियों को 730 दिन तक अवकाश का अधिकार, जानें ऐसा क्यों बोला

सुप्रीम कोर्ट ने महिला जज की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालयों को अपने न्यायिक अधिकारियों के प्रति संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश दिया। महिला जज ने अपने बेटे की शिक्षा के लिए ट्रांसफर की मांग की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकारते हुए झारखंड हाईकोर्ट को उनके स्थानांतरण का आदेश दिया।

Post Published By: Asmita Patel
Updated : 22 August 2025, 6:19 PM IST
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New Delhi: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि उच्च न्यायालयों को अपने न्यायिक अधिकारियों के लिए माता-पिता की तरह कार्य करना चाहिए। यह टिप्पणी एक महिला न्यायिक अधिकारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए दी गई, जिसमें उसने अपने बेटे की शिक्षा के लिए ट्रांसफर की मांग की थी। अदालत ने महिला जज की याचिका को लेकर हाईकोर्ट से अपेक्षा की कि वे इसे शालीनता से देखें और अहंकारी रवैया न अपनाएं। यह मामला विशेष रूप से उस महिला न्यायिक अधिकारी का था, जिन्होंने झारखंड हाईकोर्ट में अपने ट्रांसफर की मांग की थी, ताकि वह अपने बेटे की बोर्ड परीक्षा की तैयारी में मदद कर सकें और साथ ही अपने न्यायिक कार्य को जारी रख सकें। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए, जिससे यह मामला और भी महत्वपूर्ण बन गया है।

महिला जज की याचिका और सुप्रीम कोर्ट का रुख

महिला जज ने यह दलील दी थी कि उनका बेटा अगले साल 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा देने वाला है, और उन्हें एक ऐसे जिले में स्थानांतरित किया जाए, जहां स्कूल की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हों। उनका मानना था कि दुमका जैसे स्थान पर उनके बेटे को बेहतर शिक्षा नहीं मिल पा रही थी, जबकि हजारीबाग या बोकारो में बेहतर सीबीएसई स्कूल हैं। महिला न्यायिक अधिकारी ने झारखंड हाईकोर्ट से यह भी मांग की थी कि उन्हें छह महीने का बाल देखभाल अवकाश दिया जाए, लेकिन उनका यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद, उनका स्थानांतरण दुमका किया गया। महिला जज ने यह कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और कहा कि उनके बेटे की शिक्षा के लिए यह आवश्यक था कि उन्हें ट्रांसफर किया जाए, ताकि वह अपनी जिम्मेदारियों को निभा सकें।

सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन शामिल थे, ने कहा कि उच्च न्यायालयों को अपने न्यायिक अधिकारियों की समस्याओं के प्रति सजग रहना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट्स को इस मुद्दे को अहंकार का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए, बल्कि इसे एक परिवार की स्थिति के रूप में देखना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा, "हाईकोर्ट को अपने न्यायिक अधिकारियों के माता-पिता की तरह कार्य करना चाहिए और इस मामले को संवेदनशील तरीके से सुलझाना चाहिए।" इस तरह की टिप्पणी से सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया कि न्यायपालिका के भीतर भी मानवता और सहानुभूति का होना जरूरी है।

ट्रांसफर के लिए दो विकल्प

सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह महिला जज के बेटे की बोर्ड परीक्षा को ध्यान में रखते हुए उसे बोकारो स्थानांतरित करे या फिर उसे हजारीबाग में रहने की अनुमति दे, ताकि उसका बेटा अपनी परीक्षा की तैयारी कर सके। अदालत ने यह भी कहा कि यह निर्णय मार्च-अप्रैल 2026 तक लागू किया जा सकता है, ताकि महिला जज को कोई परेशानी न हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट को दो सप्ताह का समय दिया है, ताकि वह महिला जज की याचिका पर उचित कार्रवाई कर सके। कोर्ट ने यह भी कहा कि वह इस मामले में हर कदम पर निगरानी रखेगा और सुनिश्चित करेगा कि हाईकोर्ट के आदेशों का पालन किया जाए।

बाल देखभाल अवकाश के मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख

महिला जज ने अपनी याचिका में यह भी कहा था कि झारखंड हाईकोर्ट ने उनके बाल देखभाल अवकाश के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनके मामले पर संज्ञान लिया और कहा कि न्यायिक अधिकारियों को बाल देखभाल अवकाश के नियमों का पालन किया जाए। इसके तहत, न्यायिक अधिकारी अपने कार्यकाल के दौरान 730 दिन तक अवकाश का हकदार होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि महिला जज को उनके अधिकारों का पूरी तरह से सम्मान मिले और उनके बेटे की शिक्षा के लिए एक उचित समाधान निकाला जाए।

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