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बिहार में 17.7% मुस्लिम आबादी होने के बावजूद विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है। 1985 में 34 मुस्लिम विधायक चुनकर आए थे, लेकिन 2020 में यह संख्या घटकर 19 रह गई। 2025 के चुनाव में भी अनुपात में काफी कम है।
बिहार सत्ता से दूर क्यों मुसलमान
Patna: 2023 के बिहार कास्ट सर्वे के अनुसार राज्य की कुल आबादी 13.07 करोड़ है, जिसमें से 17.7% यानी 2.31 करोड़ मुसलमान हैं। राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से लगभग 87 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है, जबकि 47 सीटों पर यह 15-20% तक है। सीमांचल क्षेत्र किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया मुस्लिम राजनीति का केंद्र है। यहां की 24 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसी वोटबैंक के आधार पर राजद का MY (मुस्लिम-यादव) फॉर्मूला दशकों तक चला। हालांकि AIMIM जैसी पार्टियां इन इलाकों में तेजी से उभर रही हैं।
स्वतंत्र भारत में अब तक बिहार में 17 विधानसभा चुनाव हुए हैं। इन चुनावों में कुल 390 मुस्लिम विधायक ही चुनकर आए हैं। सबसे ऊंचा प्रतिनिधित्व 1985 में 34 विधायकों के साथ था, जबकि 2020 में यह घटकर 19 पर पहुंच गया।
1952 के पहले विधानसभा चुनाव में कुल 323 सीटों में से 23 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, जो कुल सदन का लगभग 7% थे। इसके बाद 1967 में यह संख्या बढ़कर 25 हुई और प्रतिशत के लिहाज से यह 7.9% रही। 1980 के चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या 28 तक पहुंची, जो 8.6% थी। बिहार की राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का स्वर्ण काल 1985 को माना जाता है, जब 34 मुस्लिम विधायक चुने गए। यह विधानसभा का 10.5% हिस्सा था।
इसके बाद गिरावट का दौर शुरू हुआ। 1990 में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 19 रह गई, जो केवल 5.9% थी। हालांकि 2000 के चुनाव में फिर थोड़ी बढ़ोतरी हुई और 30 मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुंचे, जो कुल 9.3% रहे। 2015 में महागठबंधन के दौर में 24 मुस्लिम विधायक चुने गए और प्रतिनिधित्व बढ़कर 9.9% हो गया, लेकिन 2020 के चुनाव में यह फिर घटकर 19 रह गया- यानी कुल 7.8%। इन आंकड़ों से साफ है कि 1985 के बाद से बिहार की विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या लगातार उतार-चढ़ाव का शिकार रही है और अब यह अपने सर्वाधिक स्तर से लगभग आधी रह गई है।
यह आंकड़े दिखाते हैं कि 1990 के बाद मुस्लिम प्रतिनिधित्व में निरंतर गिरावट आई है। 1990 के दशक में मंडल राजनीति और बाद में हिंदुत्व ध्रुवीकरण ने मुस्लिम नेताओं की हिस्सेदारी कम कर दी।
टिकट की राजनीति
अधिकांश राजनीतिक दल मुसलमानों को सिर्फ मुस्लिम-बहुल सीटों पर ही टिकट देते हैं। मिश्रित सीटों पर ‘हिंदू वोट’ खोने के डर से मुस्लिम उम्मीदवारों को नजरअंदाज किया जाता है। 2020 में जदयू ने 11 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे, लेकिन सभी हार गए।
हिंदू ध्रुवीकरण का डर
बीजेपी के उभार के साथ ही कई पार्टियों को यह डर सताने लगा कि मुस्लिम उम्मीदवार उतारने से हिंदू मतदाता दूसरी ओर चले जाएंगे। 2020 में NDA के किसी भी दल ने एक भी मुस्लिम विधायक नहीं चुना, जबकि बीजेपी ने 74 सीटें जीती थीं।
गठबंधन की उलझनें और वोट-कटाई
2015 में महागठबंधन से मुस्लिमों की संख्या थोड़ी बढ़ी, लेकिन 2020 में AIMIM ने 5 सीटें जीतीं और बाकी जगह वोट काट लिए। साथ ही पसमांदा मुसलमानों को टिकट कम मिलते हैं ज्यादातर टिकट अशराफ वर्ग के उम्मीदवारों को जाते हैं।
ऐतिहासिक मोहभंग
1989 के भागलपुर दंगे के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इसके बाद वोट राजद की ओर झुके, लेकिन लालू-नीतीश दौर में ‘MY फॉर्मूला’ ने सिर्फ वोट लिए, सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी।
क्षेत्रीय असंतुलन
सीमांचल में मुस्लिम विधायक भले जीतते हों, लेकिन मगध और दक्षिण बिहार जैसे क्षेत्रों में मुसलमान पूरी तरह गायब हैं। पटना, गया और नालंदा की कई सीटों पर पिछले 15 साल से कोई मुस्लिम विधायक नहीं है।
2025 के बिहार चुनाव 6 से 11 नवंबर के बीच होंगे और नतीजे 14 नवंबर को आएंगे। इस बार सिर्फ 36 मुस्लिम उम्मीदवार ही मैदान में हैं, जबकि आबादी के अनुपात से यह संख्या कम से कम 44 होनी चाहिए थी।
• NDA (243 सीटों में से)- सिर्फ 5 मुस्लिम उम्मीदवार
o जदयू: 4
o LJP (RV): 1
o बीजेपी और HAM: 0
• महागठबंधन (243 सीटों में से)- 30 मुस्लिम उम्मीदवार
o राजद: 18
o कांग्रेस: 10
o CPI(ML): 2
• AIMIM- 25 मुस्लिम प्रत्याशी
• जन सुराज (P.K. की पार्टी)- 21 मुस्लिम प्रत्याशी
राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि इस बार ज्यादातर मुस्लिम वोट महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) के खाते में जा सकते हैं। हालांकि AIMIM और जन सुराज जैसी पार्टियां वोट बैंक में सेंध लगा सकती हैं। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चर हैरी ब्लेयर ने अपनी किताब Minority Electoral Politics में लिखा है कि मुसलमान वोट करते समय लोकल समीकरणों को प्राथमिकता देते हैं, न कि सिर्फ धार्मिक पहचान को। इसका मतलब है कि अगर किसी सीट पर उम्मीदवार स्थानीय रूप से सक्रिय है, तो मुस्लिम वोटर धर्म से ज्यादा काम पर ध्यान देंगे।