

बिहार चुनाव से पहले वोटर लिस्ट पर बवाल मच गया है। इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन उससे पहले ही वहां सियासी घमासान शुरू हो चुका है। देखें सटीक विश्लेषण मनोज टिबड़ेवाल आकाश के साथ
वोटर लिस्ट पर बवाल
पटना: बिहार चुनाव से पहले वोटर लिस्ट पर बवाल मच गया है। इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन उससे पहले ही वहां सियासी घमासान शुरू हो चुका है। यह बवाल किसी राजनीतिक बयान या गठबंधन को लेकर नहीं, बल्कि सीधे आम मतदाताओं से जुड़े उस मुद्दे पर है, जिसे लोकतंत्र की सबसे बुनियादी कड़ी माना जाता है — मतदाता सूची। यह विवाद एक तरह से देश में पहली बार देखने को मिल रहा है, और इसकी शुरुआत बिहार से हुई है।
वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल ने अपने चर्चित शो The MTA Speaks में सटीक विश्लेषण किया। विवाद की जड़ में है भारत निर्वाचन आयोग का वह हालिया फैसला, जिसमें 22 साल पुरानी यानी वर्ष 2003 की मतदाता सूची को पुनरीक्षण के लिए आधार सूची के तौर पर अपनाने और उसे आयोग की आधिकारिक वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से अपलोड करने की घोषणा की गई है। इस कदम का उद्देश्य, आयोग के अनुसार, फर्जी वोटरों की पहचान करना, एक ही व्यक्ति के एक से अधिक स्थानों पर दर्ज नामों को हटाना और मृत, प्रवासी या निष्क्रिय मतदाताओं की सफाई करना है। लेकिन इस तकनीकी कार्यवाही ने अब एक बड़ा राजनीतिक रंग ले लिया है।
राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और चुनावी विश्लेषकों की ओर से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। मुद्दा सिर्फ तकनीकी नहीं है, यह राजनीतिक और सामाजिक संतुलन से भी जुड़ा हुआ है।
सबसे पहले बात करें चुनाव आयोग की मंशा की। आयोग ने स्पष्ट किया है कि बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण किया जाएगा। इसके तहत वर्ष 2003 की मतदाता सूची को रेफरेंस बेस माना जाएगा।
आयोग का तर्क है कि यह वह आखिरी सूची थी, जो पूरी तरह मैनुअल जनसंपर्क के माध्यम से तैयार की गई थी। उस समय प्रत्येक घर जाकर, दरवाज़ा खटखटाकर मतदाताओं का सत्यापन किया गया था। डिजिटल प्रणाली आने से पहले इसे सबसे विश्वसनीय और प्रमाणिक दस्तावेज माना जाता है। इसीलिए अब इसे वर्तमान सूची के साथ मिलाकर संशोधन की प्रक्रिया चलाई जा रही है।आयोग के अनुसार, इस प्रक्रिया से मतदाता सूची अधिक पारदर्शी, त्रुटिरहित और भरोसेमंद बनेगी। लेकिन सवाल उठता है कि यदि उद्देश्य अच्छा है, तो फिर इतना विरोध क्यों हो रहा है?
इस निर्णय को लेकर कई राजनीतिक दलों और नेताओं ने तीव्र आपत्ति जताई है। विपक्षी दलों का कहना है कि 2003 की मतदाता सूची सामाजिक दृष्टि से असंतुलित थी। उस दौर में अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़े वर्गों के नाम अपेक्षाकृत कम संख्या में दर्ज थे। इसलिए यदि उसी सूची को आधार बनाया गया, तो व्यापक पैमाने पर इन तबकों के नाम हटने की आशंका है।
सामाजिक-आर्थिक हकीकत को दर्शाती
एक और बड़ा तर्क यह है कि बीते दो दशकों में बिहार की सामाजिक और भौगोलिक संरचना में भारी बदलाव आया है। बड़े पैमाने पर आंतरिक और बाह्य पलायन हुआ है। गांवों से शहरों और बिहार से बाहर दूसरे राज्यों में रोजगार व शिक्षा के लिए लाखों लोग गए हैं। लेकिन उनमें से कई अब भी अपने मूल गांवों के वोटर बने हुए हैं और चुनाव के वक्त वापस लौटकर मतदान करते हैं। 2003 की सूची न तो इन तबकों को समुचित रूप से दर्ज करती है और न ही आज की सामाजिक-आर्थिक हकीकत को दर्शाती है। राजनीतिक दलों का यह भी आरोप है कि 22 साल पुरानी सूची को आधार बनाना एक सोची-समझी रणनीति हो सकती है, जिससे विशेष समुदायों को मताधिकार से वंचित किया जा सके। इससे सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने तो सीधे चुनाव आयोग की मंशा पर ही सवाल उठाए हैं। उन्होंने इसे एक राजनीतिक साजिश करार दिया और आशंका जताई कि इससे अल्पसंख्यकों और गरीब तबकों के वोट काटे जा सकते हैं। उनका कहना है कि आयोग द्वारा मात्र 25 दिनों में इस प्रक्रिया को पूरा करने की बात करना संदेह पैदा करता है। तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग से इस फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग की है।
विपक्ष की आपत्तियां बेबुनियाद
इसी क्रम में AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने और भी गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि निर्वाचन आयोग बिहार में गुप्त रूप से एनआरसी लागू कर रहा है। ओवैसी का सवाल है कि 2003 की सूची में जिन लोगों के नाम नहीं थे, अगर अब उन्हें हटाया जाता है, तो यह नागरिकता के अधिकार को ही चुनौती देना होगा। वहीं सत्तारूढ़ भाजपा ने चुनाव आयोग के इस कदम का समर्थन किया है। उनका तर्क है कि इससे फर्जी वोटरों की पहचान होगी, दोहराव दूर होगा और लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होंगी। भाजपा का कहना है कि विपक्ष की आपत्तियां बेबुनियाद हैं और पारदर्शिता लाने की हर कोशिश का स्वागत होना चाहिए। एनडीए की सहयोगी जेडीयू ने भी आयोग की मंशा पर भरोसा जताया है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि यह बेहद जरूरी है कि कोई वैध मतदाता इस प्रक्रिया में छूट न जाए। उनका कहना है कि पारदर्शिता अच्छी बात है, लेकिन समावेशिता उससे भी बड़ी ज़रूरत है।
लाखों लोगों का नाम मतदाता सूची से गायब
इस मुद्दे पर चुनावी विश्लेषक भी बंटे हुए हैं। कुछ इसे मतदाता सूची की सफाई और शुद्धिकरण की दिशा में एक आवश्यक कदम मानते हैं, वहीं कुछ विशेषज्ञ इसे डिजिटल भारत के दौर में एक रिग्रेसिव यानी पीछे ले जाने वाला कदम मानते हैं। उनका तर्क है कि जब आधार, मोबाइल, ई-केवाईसी, और डिजिटल प्लेटफॉर्म के जरिए पूरी मतदाता प्रणाली को अधिक आधुनिक और पारदर्शी बनाया जा रहा है, तब एक 22 साल पुरानी मैनुअल सूची को आधार बनाना न केवल तकनीकी रूप से उल्टा है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी आघात है। अब यदि आंकड़ों की बात करें तो बिहार में वर्तमान में लगभग 7.3 करोड़ मतदाता हैं। 2003 की सूची में यह संख्या लगभग 5.3 करोड़ थी। यानी करीब 2 करोड़ से अधिक मतदाता पिछले दो दशकों में सूची में जुड़े हैं। यदि अब 2003 को आधार बनाकर तुलना की जाती है, तो इन 2 करोड़ लोगों के नामों को फिर से सत्यापित करना अनिवार्य हो जाएगा। और यदि इसमें कोई चूक होती है, तो लाखों लोगों का नाम मतदाता सूची से गायब हो सकता है।
पुराने पते पर रह जाना बड़ी समस्या
प्रवासी मजदूर, छात्र, किरायेदार, महिला मतदाता — ये वे समूह हैं, जिनकी स्थिति सबसे संवेदनशील मानी जा रही है। खासकर वे महिलाएं, जिनका विवाह हो चुका है और स्थानांतरित हुई हैं, उनका नाम नई सूची में न होना या पुराने पते पर रह जाना बड़ी समस्या बन सकता है। साथ ही, बिहार जैसे राज्य में जहां हर चुनाव का राजनीतिक तापमान उच्च होता है, वहां यह मुद्दा और भी अधिक संवेदनशील बन गया है।
एक और प्रश्न यह उठता है कि क्या यह प्रक्रिया सिर्फ बिहार तक सीमित रहेगी? या आयोग इसे देशव्यापी मॉडल के तौर पर आज़माना चाहता है? अगर ऐसा है, तो इस फैसले की पारदर्शिता, इसकी प्रक्रिया और सार्वजनिक संवाद और ज्यादा ज़रूरी हो जाते हैं।
प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिसमें पारदर्शिता
मतदाता सूची का शुद्धिकरण आवश्यक हो सकता है, लेकिन इसकी प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिसमें पारदर्शिता, तकनीकी दक्षता और जन सहभागिता तीनों बराबरी से मौजूद हों। मतदाता को सूची से हटाना कोई मामूली कार्य नहीं है — यह सीधे तौर पर उसके संवैधानिक अधिकार को प्रभावित करता है। बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना भौतिक सत्यापन के, यदि किसी का नाम काटा जाता है, तो यह लोकतंत्र पर सीधी चोट होगी। इसलिए आयोग से अपेक्षा है कि वह इस प्रक्रिया को अत्यंत संवेदनशीलता, निष्पक्षता और न्यायसंगत दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ाए।