

1925 में डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 100 वर्षों में भारतीय समाज को आत्मबल, संगठन और सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा है। संघ की शाखा पद्धति, सेवा कार्य और राष्ट्रनिर्माण की प्रतिबद्धता ने इसे विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन बनाया। आरएसएस के शताब्दी वर्ष पर जानिये संघ की सांस्कृतिक चेतना से लेकर राष्ट्रनिर्माण तक का पूरा सफर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज को दे रहा आत्मबल
New Delhi: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने अपनी स्थापना के 100 वर्षों में जो विकास यात्रा तय की है, वह भारतीय समाज, संस्कृति और राष्ट्र के पुनर्जागरण की अद्वितीय गाथा है। विजयादशमी 1925 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में स्थापित यह संगठन आज विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और स्वयंसेवी संगठन बन चुका है। संघ का मूल उद्देश्य हिन्दू समाज को संगठित कर भारत को परम वैभवशाली राष्ट्र बनाना रहा है- एक ऐसा भारत जो न केवल राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो, बल्कि सांस्कृतिक रूप से एकात्म और सामाजिक रूप से समरस हो।
डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन एक शाखा केंद्रित कार्यपद्धति के माध्यम से चरित्र निर्माण, अनुशासन और संगठन के मूल्यों को जनमानस में रोपित करता रहा। जाति, वर्ग, भाषा और प्रांत से परे, शाखा में आने वाला प्रत्येक स्वयंसेवक केवल 'भारतीय' होता है। यही संघ की सबसे बड़ी शक्ति बनी।
डॉ. हेडगेवार के पश्चात माधवराव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) ने संघ का नेतृत्व संभाला और संगठनात्मक विस्तार को नई ऊँचाइयाँ दीं। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति पर आधारित राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए कार्यरत है। उनके नेतृत्व में संघ ने समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रवेश किया और सेवा कार्यों की नींव रखी।
संघ की सौ वर्ष की यात्रा
संघ के इतिहास में कई बार चुनौतियाँ भी आईं। 1948 में राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उस पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन लाखों स्वयंसेवकों ने कठिनाइयाँ सहते हुए भी संघ के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी। आपातकाल (1975-77) के दौरान भी संघ ने लोकतंत्र की रक्षा में अग्रणी भूमिका निभाई और हजारों स्वयंसेवकों ने जेल की यातनाएँ सही।
संघ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूरी तरह स्वैच्छिक संगठन है, न कोई सदस्यता शुल्क, न प्रचार का आडंबर और न ही सत्ता की आकांक्षा। इसके बावजूद यह संगठन शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी उत्थान, महिला सशक्तिकरण, आर्थिक स्वावलंबन, पर्यावरण संरक्षण और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अनगिनत संगठनों के माध्यम से कार्य कर रहा है। विद्या भारती, सेवा भारती, संस्कार भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों ने देश के सबसे पिछड़े वर्गों तक सेवा की पहुँच बनाई है।
कोरोना महामारी के दौरान संघ की सेवा भावना का व्यापक प्रदर्शन देखने को मिला। लाखों स्वयंसेवकों ने जरूरतमंदों तक भोजन, दवा और स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचाईं। इसने सिद्ध कर दिया कि संकट की घड़ी में संघ का संगठन तंत्र कितना प्रभावी और जनसेवक है।
संघ की वैश्विक उपस्थिति भी उल्लेखनीय है। विश्व हिन्दू परिषद और हिन्दू स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के बीच संघ की शाखाएँ सक्रिय हैं। इससे भारतीय संस्कृति और सनातन मूल्यों का वैश्विक स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ है और भारत की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा भी सुदृढ़ हुई है।
समय के साथ संघ ने स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखा है। जातिवाद के विरुद्ध सामाजिक समरसता, लोकतंत्र की रक्षा में भागीदारी, और आधुनिकता के दौर में सांस्कृतिक पहचान की रक्षा- इन सभी क्षेत्रों में संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
संघ की यह यात्रा केवल संगठन के विस्तार की कहानी नहीं, बल्कि उन अनगिनत स्वयंसेवकों की तपस्या और त्याग की अमिट छाप है, जिन्होंने राष्ट्रसेवा को अपना जीवनधर्म बना लिया। आज जब भारत आत्मनिर्भर बनने और वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर है, तब संघ की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह 100 वर्षों की विकास यात्रा भारत की सांस्कृतिक चेतना के जागरण और राष्ट्रनिर्माण की नींव है। गुरु गोलवलकर के मंत्र 'राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम' और 'चरैवेति-चरैवेति' के सिद्धांत के साथ संघ निरंतर राष्ट्र को आत्मनिर्भर, समरस और सांस्कृतिक रूप से सशक्त बनाने में जुटा है।
लेखक: प्रो. श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी, अध्यक्ष, राष्ट्रीय समाज विज्ञान परिषद