

शिक्षा के अधिकार के बावजूद कबाड़ बीन कर जीवन बसर करते मासूम, प्रशासनिक तंत्र की अनदेखी से बच्चों का भविष्य अंधकारमय। पढ़िये डाइनामाइट न्यूज़ की पूरी रिपोर्ट
कूड़ा उठाते बच्चे
फरेंदा: जहाँ एक ओर सरकार "सब पढ़ें, सब बढ़ें" का नारा देती है, वहीं जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर नजर आती है। फरेंदा कस्बे के विभिन्न इलाकों में दर्जनों बच्चे स्कूल की चौखट तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। उनकी दिनचर्या कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक और कबाड़ बीनने में बीत रही है।इन मासूमों के हाथों में किताब और कलम होनी चाहिए थी, लेकिन वो हाथ आज रोज़गार की तलाश में कूड़े में अपनी किस्मत टटोल रहे हैं। इन बच्चों का न कोई स्कूल रिकॉर्ड है, न ही उनके परिवारों को किसी योजना का लाभ मिल रहा है।
डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार शिक्षा के अधिकार अधिनियम के बावजूद इन बच्चों को स्कूल से जोड़े जाने के लिए न कोई ठोस प्रयास हुए हैं और न ही इनकी दशा पर प्रशासन की नज़र। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि यह महज गरीबी नहीं, बल्कि सिस्टम की उदासीनता है।
"अगर प्रशासन और शिक्षा विभाग चाहें तो हर बच्चे को स्कूल तक पहुंचाना संभव है, लेकिन अफ़सोस की बात है कि ये सिर्फ़ कागज़ों में होता है।
क्या कहती है व्यवस्था?
इस मुद्दे पर जब खंड शिक्षा अधिकारी सुदामा प्रसाद से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि अभी स्कूल की छुट्टी चल रही है,विद्यालय खुलेगा तो अभियान चला कर गरीब बच्चों का नामांकन नजदीक के प्राथमिक विद्यालय में कराया जाएगा।
अब सवाल ये है
क्या इन बच्चों का बचपन यूं ही कबाड़ में गुम होता रहेगा? या कोई जिम्मेदार वास्तव में आगे बढ़कर इनकी जिंदगी संवारने का बीड़ा उठाएगा?