The MTA Speaks: पति-पत्नी की गुप्त कॉल रिकॉर्डिंग…कैसे सुलझेगी कानूनी दांव में रिश्तों के पेंच की अबूझ पहेली?

सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवादों में गुप्त रूप से रिकॉर्ड की गई बातचीत की स्वीकार्यता पर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इस पर वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश का विशेष विश्लेषण देखिए

Post Published By: Sona Saini
Updated : 15 July 2025, 5:46 PM IST
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नई दिल्ली: भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता है लेकिन समय के साथ इस रिश्ते में आई जटिलताएं, विश्वास की दरारें और आपसी संदेह ने अब कई तरह की कानूनी चुनौतियां भी खड़ी कर दी हैं। हाल के वर्षों में ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जिनमें पति या पत्नी ने एक-दूसरे की बातचीत को गुप्त रूप से रिकॉर्ड कर लिया, और उसे न्यायालय में सबूत के रूप में पेश किया। सवाल यह उठता रहा है कि क्या इस प्रकार की रिकॉर्डिंग कानूनी रूप से मान्य है? क्या यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है? और सबसे महत्वपूर्ण—क्या यह न्यायिक प्रक्रिया में मददगार हो सकती है?

इन तमाम बहसों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है, जो वैवाहिक विवादों में गुप्त रूप से की गई टेलीफोन रिकॉर्डिंग के कानूनी दर्जे को लेकर भविष्य की दिशा तय करेगा।

वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश ने अपने शो 'The MTA Speaks' में बताया कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पति या पत्नी द्वारा एक-दूसरे की टेलीफोन या मोबाइल बातचीत को गुप्त रूप से रिकॉर्ड किया गया हो, तो भी उसे फैमिली कोर्ट में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यदि ऐसा कोई रिकॉर्ड फैक्ट्स को स्पष्ट करता है और मामला न्यायिक परीक्षण में मददगार है, तो उस साक्ष्य को तकनीकी आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए।

पंजाब का है ये मामला

यह मामला मूलतः पंजाब से जुड़ा है, जिसमें एक पति ने फैमिली कोर्ट, बठिंडा में अपनी पत्नी के खिलाफ तलाक की अर्जी दाखिल की थी। इस मामले में पति ने दावा किया था कि उसकी पत्नी उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करती थी और इस आरोप को सिद्ध करने के लिए उसने उसकी टेलीफोन कॉल्स की रिकॉर्डिंग की थी। कॉल रिकॉर्डिंग को सीडी में सुरक्षित कर कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया। फैमिली कोर्ट ने इन रिकॉर्डिंग्स को साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और इसी आधार पर तलाक याचिका की सुनवाई शुरू कर दी।

वहीं पत्नी ने इस आदेश को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी। उसका कहना था कि उसकी अनुमति के बिना की गई कॉल रिकॉर्डिंग न केवल उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन है, बल्कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का भी हनन है।

हाईकोर्ट ने क्या कहा?

हाईकोर्ट ने पत्नी की दलीलों को स्वीकार करते हुए फैमिली कोर्ट के फैसले को पलट दिया और कहा कि इस तरह की रिकॉर्डिंग भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के अंतर्गत अमान्य है। धारा 122 के अनुसार, पति-पत्नी के बीच हुए व्यक्तिगत संवाद को अदालत में साक्ष्य के रूप में तभी पेश किया जा सकता है जब दूसरा पक्ष उसकी अनुमति दे। हाईकोर्ट का कहना था कि बिना सहमति टेलीफोन पर हुई बातचीत को रिकॉर्ड करना न केवल अनैतिक है, बल्कि यह संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है।

इस फैसले के विरुद्ध मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और आज शीर्ष अदालत ने एकदम उलट निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि इस प्रकार की रिकॉर्डिंग वैवाहिक विवादों के मामलों में उपयोगी साक्ष्य हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि यदि पति या पत्नी एक-दूसरे की बातचीत को गुप्त रूप से रिकॉर्ड कर रहे हैं, तो यह इस बात का संकेत है कि रिश्ते में विश्वास की स्थिति समाप्त हो चुकी है, और अब अदालत के लिए सच्चाई को सामने लाना अधिक महत्वपूर्ण है।

फैमिली कोर्ट और क्रिमिनल कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि फैमिली कोर्ट की प्रक्रिया आपराधिक या सामान्य दीवानी अदालतों से अलग होती है। इसका उद्देश्य दो व्यक्तियों के बीच के विवाद को निष्पक्ष तरीके से सुलझाना है, न कि सिर्फ प्रक्रिया पर आधारित तकनीकी निर्णय देना। इसीलिए, साक्ष्य के रूप में अगर कोई रिकॉर्डिंग विवाद की सच्चाई को सामने लाती है, तो उसे खारिज नहीं किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने यह भी कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 में जहां पति-पत्नी के संवादों की गोपनीयता को मान्यता दी गई है, वहीं उसमें यह अपवाद भी है कि यदि दोनों के बीच का संबंध अब उस स्तर पर नहीं है, जहाँ गोपनीयता की अपेक्षा की जा सकती है, तो उस संवाद को सबूत के रूप में अदालत में पेश किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का यह रुख पारंपरिक गोपनीयता बनाम न्याय की अवधारणा के बीच संतुलन बनाता हुआ नजर आता है।

निजता का अधिकार बनाम न्याय का अधिकार

न्यायालय ने निजता के अधिकार और न्याय प्राप्त करने के अधिकार के बीच एक स्पष्ट रेखा खींचते हुए कहा कि किसी एक पक्ष को उसके अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी तथ्यों को अदालत के सामने रखने से वंचित नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से तब जब वह साक्ष्य किसी प्रकार के उत्पीड़न, क्रूरता या मानसिक तनाव को प्रमाणित करता हो।

इस फैसले के दूरगामी प्रभाव होंगे। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, वैवाहिक विवादों में अब यह मार्ग प्रशस्त हो गया है कि अगर कोई पक्ष मानता है कि उसका जीवनसाथी मानसिक उत्पीड़न या क्रूरता का दोषी है, तो वह गुप्त रूप से की गई बातचीत को अदालत में प्रमाण के रूप में पेश कर सकता है, बशर्ते वह प्रमाण वास्तविक हो और सत्य की खोज में सहायक हो।

यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पहले की न्यायिक व्याख्याओं में निजता के अधिकार को सर्वोपरि माना जाता था। विशेषकर केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया था। लेकिन आज के फैसले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते समय व्यापक न्याय के सिद्धांतों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

वैवाहिक विवादों की बढ़ रही है संख्या

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, "हमारे समाज में वैवाहिक विवादों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और अदालतों में लंबित ऐसे मामलों की संख्या भी बहुत अधिक है। यदि ऐसे मामलों में साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत की गई रिकॉर्डिंग से अदालत को सच तक पहुंचने में मदद मिलती है, तो उन्हें केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वे गुप्त रूप से की गई हैं।"

हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह की रिकॉर्डिंग को अदालत में प्रस्तुत करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि वे छेड़छाड़ रहित हों, तकनीकी रूप से प्रमाणित हों और अदालत द्वारा स्वीकार्य प्रारूप में पेश की गई हों।

यह फैसला उन सभी दंपत्तियों के लिए नजीर बनेगा जो वैवाहिक संबंधों में मानसिक उत्पीड़न, विश्वासघात या अन्य प्रकार की प्रताड़नाओं का सामना कर रहे हैं लेकिन उन्हें प्रमाणित करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होते। अब ऐसे पक्षों को कानूनी सहायता मिल सकेगी और वे कोर्ट में अपनी बात मजबूती से रख पाएंगे।
यह फैसला केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की ओर भी एक संकेत है। यह दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका अब पारंपरिक सोच से आगे बढ़कर जमीनी हकीकत को समझते हुए निर्णय दे रही है। निजता के अधिकार की रक्षा जरूरी है, लेकिन जब बात किसी के न्याय के अधिकार से टकराती है, तो संतुलन बनाना जरूरी हो जाता है।

यह फैसला न्यायिक प्रणाली के भीतर ट्रांसपेरेंसी, तथ्यात्मकता और पीड़ित पक्ष की आवाज़ को ताकत देने वाला है।

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