

1526 में इब्राहिम लोदी पर जीत के बाद बाबर ने दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया और अकूत खजाने पर अधिकार जमाया। लेकिन यह विजय सिर्फ शुरुआत थी। एक तरफ उसने बेगों, बहादुरों और सैनिकों में दरियादिली से इनाम बांटे, वहीं दूसरी तरफ उसकी सेना हिंदुस्तान की गर्मी और स्थानीय विरोध से टूटने लगी। लोग वापस लौटने को बेताब थे, जबकि बाबर भारत में स्थायी शासन की नींव रखना चाहता था। यही वह मोड़ था जहाँ से मुगल सल्तनत की असल शुरुआत हुई। आइए जानते हैं, कैसे बाबर ने न सिर्फ फौज का मनोबल बनाए रखा, बल्कि उसे इस धरती से जोड़ भी लिया।
दिल्ली का लाल किला
New Delhi: पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर जब दिल्ली और आगरा पहुंचा, तो उसके हाथ वह खजाना लगा जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। इस विजय के बाद बाबर को सिर्फ एक बादशाह नहीं, बल्कि एक नए मुल्क का शासक बनना था। उसने तुरंत खजाने की गिनती और वितरण का काम शुरू करवाया।
खजाना बंटा, विश्वास जीता
12 मई 1526 को बाबर ने खजाने का वितरण आरंभ किया। अपने पुत्र हुमायूं को उसने न सिर्फ सत्तर लाख नकद दिए बल्कि एक पूरा खजाना बिना जांचे-परखे सौंप दिया। बेगों और बहादुरों को रुतबे के अनुसार दस से छह लाख तक दिए गए। फ़ौज के हजारा, पठान, अरब और बलूच सैनिकों को भी नकद ईनाम दिए गए। सौदागर, गुलाम, कलाकार और दरबारी सभी को किसी न किसी रूप में नवाजा गया। बाबर की दरियादिली सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रही। समरकंद, खुरासान, काशगर, इराक और मक्का-मदीना तक भी नजराने भेजे गए। काबुल और सद्दी-बरसक की रैयत में हर आम और खास को एक-एक शाहरुखी दी गई। यही नहीं, लोदी दरबार की नर्तकियां और गुलाम तक भेंट स्वरूप बांटे गए।
लेकिन सब कुछ सही नहीं था…
भले ही बाबर ने फतह पा ली थी, लेकिन जनता और वातावरण उसके लिए प्रतिकूल थे। स्थानीय लोग परदेसियों को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। गांव वाले भाग जाते थे, लूट-पाट होने लगी थी। सम्भल, मेवात, धौलपुर, ग्वालियर, रापड़ी, इटावा, कालपी और मथुरा जैसे इलाकों में विद्रोह और असंतोष फैल गया था। बाबर खुद लिखता है कि हमें अनाज नहीं मिला, जानवरों को दाना नहीं मिला और गांववाले विरोध में चोरी-डकैती करने लगे थे। लू और गर्मी ने हमारे कई साथियों को खत्म कर दिया।
सेना में लौटने की जिद
महीनों से परदेस में रह रहे बाबर के सैनिक अब टूट चुके थे। उन्हें अपने वतन काबुल की याद सताने लगी थी। खान-पान, भाषा, मौसम और रहन-सहन सब कुछ नया और असहज था। उनकी वापसी की जिद अब बाबर के कानों तक भी पहुंचने लगी थी। बाबर ने लिखा कि मैंने मामूली लोगों को भी बेग बनाया था, सोचकर कि वे हर मुश्किल में साथ देंगे। लेकिन अब वे साथ छोड़ना चाहते हैं।
समझाया, चेताया और फिर जोड़ा
बाबर ने हार नहीं मानी। वह जानता था कि इतनी बड़ी जीत को केवल लूट में बदलना उसकी रणनीतिक हार होगी। उसने सभी को इकट्ठा कर भाषण दिया। जहां बादशाही चाहिए, वहां मुल्क और रैयत भी चाहिए। बरसों से संघर्ष कर यहां तक पहुंचे हैं। अब जब अल्लाह ने इतना बड़ा मुल्क दिया है, तो उसे यूं ही छोड़ देना क्या समझदारी है? उसने दो टूक कहा कि जो मेरा भला चाहता है, वापसी की बात न करे। और जिसमें रुकने की हिम्मत न हो, वह अभी विदा हो जाए।
ख़्वाजा कलां और बाबर की नाराज़गी
ख़्वाजा कलां, बाबर का भरोसेमंद साथी काबुल लौटने की सबसे ज्यादा जिद कर रहा था। बाबर ने बेमन से उसे अनुमति दी, साथ ही गजनी, किरदीज, सुल्तान-मसूदी हजारा जैसे परगने सौंपे ताकि वह वहां रसद और रक्षा का काम देख सके। लेकिन जाते-जाते ख़्वाजा दिल्ली में अपने मकान की दीवार पर एक शेर लिख गया…
"कुशल-कुशल जो कहीं सिंध पार कर डाला,
तो चाहें हिंद की करूं तो करूं मुंह काला"
बाबर को यह शेर गुस्ताखी लगा। उसने कहा कि जब मैं हिंदुस्तान में ही हूं, तब इस तरह की टिप्पणी मेरी तौहीन है। जवाब में बाबर ने एक रुबाई लिखी...
"मना बाबर परम दयालु का शत-शत आभार,
कि सिंध-हिंद आदि सभी उसी के दान उदार।
यह ग्रीष्म अगर है असह, शीत की चाह तुझे,
तो याद कर गजनी के शिशिर-तुषार की मार।"