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संविधान दिवस के अवसर पर यह समझना जरूरी है कि ड्राफ्टिंग कमेटी में सात सदस्यों के चयन के बावजूद भारत का संविधान मुख्यतः डॉ. आंबेडकर ने ही क्यों लिखा। उनकी दूरदर्शिता, मेहनत और भारतीयता के मूल्यों ने संविधान को एक राष्ट्रीय संकल्प का रूप दिया।
भीमराव आंबेडकर ने लिखा संविधान का प्रारूप
New Delhi: भारत जिस संविधान पर आज गर्व करता है, वह केवल एक दस्तावेज नहीं बल्कि भारतीयता, लोकतंत्र और मानवता के सर्वोच्च मूल्यों का सार है। संविधान दिवस के अवसर पर यह प्रश्न अक्सर चर्चा में आता है कि जब संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए सात लोगों की ड्राफ्टिंग कमेटी बनाई गई थी, तो आखिर भारत के संविधान का मसौदा मुख्यतः डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ही क्यों लिखा। इसके पीछे कई ऐतिहासिक परिस्थितियां थीं, जिन्होंने डॉ. आंबेडकर को अकेले ही इस महान कार्य को आगे बढ़ाने का अवसर और चुनौती दोनों प्रदान की।
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी और लगभग तीन वर्षों में हुई 167 बैठकों के बाद संविधान तैयार हुआ। इस लंबी और कठिन प्रक्रिया के दौरान ड्राफ्टिंग कमेटी, जिसकी अध्यक्षता डॉ. आंबेडकर कर रहे थे, जिनको संविधान का विस्तृत प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी मिली।
समिति में कुल सात सदस्य शामिल थे, लेकिन इनमें से अधिकांश सदस्य विभिन्न कारणों से निरंतर सक्रिय भूमिका निभाने में असमर्थ रहे। इस तथ्य का उल्लेख खुद ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य टी.टी. कृष्णाम्माचारी ने 5 नवंबर 1948 को संविधान सभा के सामने अपने भाषण में किया। उन्होंने बताया कि सात सदस्यों में से एक ने इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह नहीं भरी जा सकी।
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इनमें से एक सदस्य का निधन हो गया, दूसरा अमेरिका चला गया और चौथा रियासतों से जुड़े मामलों में इतना व्यस्त रहा कि बैठकों में भाग ही नहीं ले पाया। दो सदस्य बीमारी और दूरी के कारण नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो सके। स्थितियां ऐसी बन गईं कि संविधान के विस्तृत और जटिल मसौदे का संपूर्ण बोझ अकेले डॉ. आंबेडकर के कंधों पर आ गया। कृष्णाम्माचारी ने कहा था कि आंबेडकर ने कठिन परिस्थितियों और भारी जिम्मेदारी के बावजूद इस कार्य को जिस दक्षता से पूरा किया, उसके लिए देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि संविधान सभा में कुल 300 से अधिक सदस्य सक्रिय थे, जिन्हें समान अधिकार प्राप्त थे, फिर भी आंबेडकर को ही संविधान का मुख्य निर्माता क्यों कहा जाता है। इसका उत्तर वह विशिष्ट दृष्टि और विधिक कौशल है, जो आंबेडकर के पास था। एक विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री और समाज सुधारक के रूप में उनके पास भारतीय समाज की गहन समझ थी। वे जानते थे कि भारत जैसी विविधताओं वाले देश में संविधान केवल कानूनों का संग्रह नहीं, बल्कि समतामूलक समाज की नींव बनना चाहिए। यही कारण है कि आंबेडकर द्वारा तैयार संविधान की प्रस्तावना भारत की आत्मा बन गई, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी सार्वभौमिक मान्यताओं को भारतीय संदर्भ में अत्यंत संतुलित रूप में व्यक्त किया गया।
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भारतीय संविधान की एक विशिष्ट पहचान यह भी है कि इसमें वंचित, पिछड़े और कमजोर वर्गों के लिए सकारात्मक क्रिया, जिसे आज हम आरक्षण और विशेष प्रावधानों के रूप में जानते हैं उसे शामिल किया गया। इस सोच की जड़ें डॉ. आंबेडकर की सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता में थीं। उनका मानना था कि समानता केवल अधिकार देने से नहीं, बल्कि उन वर्गों को अतिरिक्त सहारा देने से संभव होती है, जिन्हें सदियों से अवसरों से वंचित रखा गया।
संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया में यह सुनिश्चित किया कि भारत का हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, भाषा या वर्ग से हो, समान अधिकारों का अधिकारी बने। आज भारत एक स्थिर और परिपक्व लोकतंत्र के रूप में विश्व में पहचान रखता है। संविधान न केवल शासन प्रणाली का ढांचा है, बल्कि वह दस्तावेज है जो भारत की आत्मा को परिभाषित करता है। संविधान दिवस हमें इस ऐतिहासिक यात्रा की याद दिलाता है और यह समझने का अवसर देता है कि क्यों डॉ. आंबेडकर को भारत के संविधान का शिल्पी कहा जाता है। प