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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन की हार सिर्फ सीटों या संख्या की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस राजनीतिक अव्यवस्था, नेतृत्वहीनता और जमीन से कटती रणनीतियों का नतीजा है जिसने पूरे विपक्ष को हाशिए पर ला दिया। पढ़ें पूरी रिपोर्ट
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Patna: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन की हार सिर्फ सीटों या संख्या की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस राजनीतिक अव्यवस्था, नेतृत्वहीनता और जमीन से कटती रणनीतियों का नतीजा है जिसने पूरे विपक्ष को हाशिए पर ला दिया। चुनाव परिणामों ने साफ संकेत दिया कि महागठबंधन न तो मतदाता का भरोसा जीत पाया, न ही खुद गठबंधन के भीतर एकजुटता बनाए रख सका।
महागठबंधन की सबसे बड़ी विफलता उसका बिखरा हुआ नेतृत्व ढांचा रहा। राजद, कांग्रेस और अन्य दल चुनाव से ठीक पहले नेतृत्व और चेहरे को लेकर उलझते रहे। मतदाता ने इस असमंजस को साफ तौर पर महसूस किया। तेजस्वी यादव ने धुआंधार रैलियाँ तो कीं, लेकिन गठबंधन को एक आवाज, एक दिशा और एक योजना देने में विफल रहे। चुनाव जहां संयुक्त रणनीति की मांग कर रहा था, वहीं महागठबंधन अंदरूनी खींचतान में घिरा रहा।
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बिहार में सामाजिक समीकरण चुनावी नींव माने जाते हैं, लेकिन इस बार महागठबंधन इन्हीं समीकरणों के पुराने फार्मूले में फंस गया। नए जातीय समूह, पहली बार वोट देने वाले युवा, और महिला मतदाता इन तीनों को एनडीए ने बेहतर तरीके से संबोधित किया। महागठबंधन ने यह मान लिया कि परंपरागत वोट बैंक हमेशा साथ रहेगा, जबकि जमीन पर कई सामाजिक वर्ग बदलाव की ओर झुक चुके थे। इस बदलाव को न पढ़ पाना महागठबंधन की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल साबित हुई।
महागठबंधन का बड़ा स्तंभ मानी जाने वाली कांग्रेस इस बार उसकी कमजोर कड़ी बन गई। टिकट बंटवारे में नाराजगी, गलत प्रत्याशी चयन और कमजोर प्रचार मशीनरी ने गठबंधन की संयुक्त लड़ाई को कमजोर किया। कई क्षेत्रों में कांग्रेस के उम्मीदवार न पहचान में आते थे, न जनता उनसे जुड़ पा रही थी। राजद और कांग्रेस में सीट शेयरिंग पर भी विवाद लगातार बना रहा, जिससे गठबंधन विश्वसनीयता खोता गया।
महागठबंधन बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा सुधार और कृषि संकट जैसे मुद्दों को उठाता रहा, लेकिन इन मुद्दों को एक संगठित, प्रभावी नैरेटिव में बदल नहीं पाया। इसके उलट एनडीए ने विकास, स्थिर सरकार और कानून-व्यवस्था को चुनाव का मुख्य एजेंडा बना दिया। महागठबंधन की आवाज मतदाताओं तक पहुँचते-पहुँचते कमजोर हो गई।
राजद और कांग्रेस दोनों ही बूथ स्तर पर काफी कमजोर साबित हुए। कई क्षेत्रों में कार्यकर्ता सक्रिय नहीं हुए, वहीं जिन सीटों पर उम्मीदवार बदले गए, वहाँ स्थानीय असंतोष खुलकर सामने आया। युवाओं और महिलाओं को आकर्षित करना भी महागठबंधन के लिए चुनौती बना रहा।
बिहार में महागठबंधन की यह हार बताती है कि चुनाव केवल नारों, पारंपरिक वोट बैंक या गठबंधन की औपचारिकता से नहीं जीते जाते। नेतृत्व की मजबूती, स्पष्ट दृष्टिकोण, संगठन की पकड़ और समय पर रणनीति—ये सभी कारक जीत तय करते हैं। अगर विपक्ष भविष्य में वापसी चाहता है, तो उसे इन्हीं पाँच क्षेत्रों में गहरे सुधार करने होंगे, वरना उसके लिए राजनीतिक जमीन और भी मुश्किल हो जाएगी।