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बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक लगातार हिंसा और असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। भीड़ द्वारा हत्याएं, मंदिरों में तोड़फोड़ और जबरन पलायन की घटनाएं बढ़ रही हैं। क्या यह सुनियोजित हिंसा है या प्रशासनिक नाकामी? पढ़ें पूरा विश्लेषण और इसके कूटनीतिक असर समझिए।
पड़ोसी देश में ऐसा क्या बदल गया कि अचानक हालात बेकाबू हो गए?
New Delhi: बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार सामने आ रही हिंसा, उत्पीड़न और असुरक्षा की घटनाएं अब केवल किसी एक समुदाय की समस्या नहीं रहीं, बल्कि यह मुद्दा पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता और भारत-बांग्लादेश संबंधों के भविष्य से जुड़ गया है। बीते कुछ महीनों में जिस तरह से हिंदुओं के घरों, दुकानों और मंदिरों को निशाना बनाया गया, उसने बांग्लादेश के लोकतांत्रिक ढांचे और कानून-व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश ने अपने चर्चित शो The MTA Speaks में बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार सामने आ रही हिंसा को लेकर विश्लेषण किया।
बीते कुछ समय में जिस तरह से हिंदू समुदाय को निशाना बनाया गया है, उसने पूरे दक्षिण एशिया में चिंता बढ़ा दी है और भारत में जनभावनाओं को भी गहराई से प्रभावित किया है। दिल्ली, कोलकाता, अगरतला और देश के कई अन्य शहरों में बांग्लादेश उच्चायोग और दूतावासों के बाहर हिंदू संगठनों और सामाजिक समूहों के प्रदर्शन यह संकेत देते हैं कि यह मुद्दा अब केवल बांग्लादेश की आंतरिक समस्या नहीं रहा। इसका असर भारत की राजनीति, कूटनीति और सामरिक सोच पर भी पड़ रहा है। भारत में लोग सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर पड़ोसी देश में हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो रहा है, क्यों बार-बार वही समुदाय हिंसा का शिकार बनता है और क्या बांग्लादेश की सरकार अपने ही नागरिकों की सुरक्षा करने में सक्षम है या नहीं।
सबसे पहले जरूरी है कि हम बांग्लादेश के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को समझें। बांग्लादेश में हिंदू आबादी लगभग सात से आठ प्रतिशत के बीच मानी जाती है। आज़ादी के समय यह प्रतिशत कहीं अधिक था, लेकिन दशकों में लगातार हुए पलायन, दंगे, भेदभाव और असुरक्षा की भावना के कारण हिंदू आबादी घटती चली गई। सामाजिक और आर्थिक रूप से हिंदू समुदाय पहले से ही अपेक्षाकृत कमजोर रहा है। ग्रामीण इलाकों में भूमि विवाद, जबरन कब्जा, संपत्ति हड़पने की घटनाएं और प्रशासनिक उदासीनता लंबे समय से समस्या रही हैं। जब भी बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है, चुनावी तनाव होता है या सत्ता संघर्ष तेज़ होता है, तब अल्पसंख्यक समुदाय को आसान निशाना बनाया जाता है।
हालिया घटनाओं की पृष्ठभूमि भी कुछ ऐसी ही है। बांग्लादेश लंबे समय से राजनीतिक ध्रुवीकरण, सत्ता संघर्ष और प्रशासनिक कमजोरी से जूझ रहा है। 2024 के बाद सत्ता संतुलन में आए बदलाव, विपक्ष और सरकार के बीच बढ़ते टकराव और सड़कों पर उतरते विरोध प्रदर्शनों ने कानून-व्यवस्था को कमजोर किया। ऐसे माहौल में कट्टरपंथी और अराजक तत्वों को खुलकर खेलने का मौका मिला। छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा मुद्दा बनाकर हिंसा भड़काई गई। कहीं धर्म के अपमान का आरोप लगाया गया, कहीं सोशल मीडिया पर फैलाई गई अफवाहों ने आग में घी डालने का काम किया और कहीं राजनीतिक बदले की भावना ने हिंदू बस्तियों को निशाना बना लिया।
बीते दिनों जिन घटनाओं ने सबसे ज्यादा ध्यान खींचा, उनमें मैमनसिंह ज़िले के भालुका क्षेत्र में एक हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की बर्बर हत्या शामिल है। उस पर धर्म के अपमान का आरोप लगाकर भीड़ ने हमला किया और उसकी जान ले ली। यह कोई पहली घटना नहीं थी। इससे पहले भी अलग-अलग इलाकों से हिंदुओं के घरों पर हमले, दुकानों को जलाने, मंदिरों में तोड़फोड़ और महिलाओं को डराने-धमकाने की खबरें आती रही हैं। कई मामलों में लोग अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़ने को मजबूर हुए। यह जबरन पलायन बांग्लादेश के सामाजिक ताने-बाने के लिए एक खतरनाक संकेत है।
इन घटनाओं ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान भी खींचा है। संयुक्त राष्ट्र और कई मानवाधिकार संगठनों ने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर सवाल उठाए हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी यह मुद्दा उठ रहा है कि एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक देश होने के बावजूद बांग्लादेश अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा क्यों नहीं दे पा रहा। हालांकि बांग्लादेश सरकार बार-बार यह दावा करती रही है कि हालात नियंत्रण में हैं और कुछ घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे अलग तस्वीर दिखाती है।
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भारत में इस मुद्दे को लेकर आक्रोश लगातार बढ़ रहा है। राजधानी दिल्ली में बांग्लादेश दूतावास के बाहर लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। डाइनामाइट न्यूज़ ने इन प्रदर्शनों को मौके से कवर किया, जहां हिंदू संगठनों में भारी गुस्सा देखा गया। प्रदर्शनकारी बांग्लादेश सरकार के खिलाफ नारे लगा रहे थे और हिंदुओं की सुरक्षा की मांग कर रहे थे। कई बार हालात इतने तनावपूर्ण हो गए कि पुलिस को प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए सख्ती करनी पड़ी और झड़पें भी हुईं। यह सब दिखाता है कि यह मुद्दा भारत में केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव का रूप भी ले चुका है।
भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में वैसे भी पिछले कुछ समय से खटास देखी जा रही है। पांच अगस्त के बाद से दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर तनाव बढ़ा है। कुछ बांग्लादेशी अखबारों के अनुसार, इंक़लाब मंच के नेता शरीफ़ उस्मान हादी और एक हिंदू युवक की हत्या के बाद यह तनाव और गहरा गया। इसके बाद बांग्लादेश द्वारा वीजा और कांसुलर सेवाओं पर अस्थायी रोक जैसे कदमों ने भी रिश्तों में कड़वाहट बढ़ाई। ये फैसले केवल कूटनीतिक नहीं हैं, बल्कि आम लोगों, व्यापारियों, छात्रों और मरीजों को भी प्रभावित करते हैं।
इतिहास पर नज़र डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा कोई नई बात नहीं है। 1964 के दंगे हों, 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान हुए नरसंहार हों या उसके बाद के दशकों में समय-समय पर भड़की हिंसा-हर बड़े राजनीतिक संकट में हिंदू समुदाय को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। आज़ादी के बाद से अब तक लाखों हिंदू बांग्लादेश छोड़कर भारत आ चुके हैं। यह पलायन केवल जनसंख्या का आंकड़ा नहीं, बल्कि एक समाज के टूटने की कहानी है। आज भी वही इतिहास नए रूप में खुद को दोहराता हुआ दिखाई दे रहा है।
दोष किसका है, इस सवाल पर भारत और बांग्लादेश के नजरिये बिल्कुल अलग हैं। भारत और यहां के हिंदू संगठनों का आरोप है कि बांग्लादेश सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में नाकाम रही है। कई मामलों में स्थानीय प्रशासन की चुप्पी और ढिलाई ने हिंसा को बढ़ावा दिया। पुलिस और प्रशासन समय पर हस्तक्षेप नहीं करते, शिकायतों पर कार्रवाई नहीं होती और आरोपी खुलेआम घूमते रहते हैं। दूसरी ओर बांग्लादेश सरकार का कहना है कि कुछ घटनाओं को राजनीतिक उद्देश्य से तूल दिया जा रहा है और देश की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन लगातार सामने आ रही घटनाएं और पीड़ितों की गवाही इस बात की ओर इशारा करती हैं कि समस्या केवल प्रचार की नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत की है।
इस पूरे घटनाक्रम का असर केवल मानवीय या सामाजिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि रणनीतिक और आर्थिक स्तर पर भी पड़ रहा है। भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार, ऊर्जा सहयोग, सीमा प्रबंधन और क्षेत्रीय सुरक्षा जैसे कई अहम मुद्दों पर साझेदारी है। अगर रिश्तों में अविश्वास बढ़ता है, तो इसका असर इन सभी क्षेत्रों पर पड़ेगा। भारत के लिए बांग्लादेश उसकी पूर्वी सीमा की स्थिरता और पूर्वोत्तर राज्यों की सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद अहम है। वहीं बांग्लादेश के लिए भारत सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक है और क्षेत्रीय मंचों पर भारत का समर्थन भी उसके लिए महत्वपूर्ण रहा है।
भविष्य की तस्वीर अभी साफ नहीं है। अगर बांग्लादेश सरकार सख्ती से कानून-व्यवस्था लागू करती है, दोषियों के खिलाफ बिना भेदभाव कार्रवाई करती है और अल्पसंख्यकों में विश्वास बहाल करने के ठोस कदम उठाती है, तो हालात धीरे-धीरे सुधर सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय दबाव और वैश्विक निगरानी भी इस दिशा में भूमिका निभा सकती है। लेकिन अगर राजनीतिक अस्थिरता, कट्टरपंथ और प्रशासनिक कमजोरी बनी रही, तो यह संकट और गहराने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
कुल मिलाकर, बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ बढ़ता अत्याचार केवल मानवाधिकार का सवाल नहीं है। यह दक्षिण एशिया की स्थिरता, क्षेत्रीय संतुलन और भारत-बांग्लादेश के रिश्तों की एक बड़ी परीक्षा बन चुका है। आने वाले समय में यह देखना बेहद अहम होगा कि क्या दोनों देश भावनाओं और आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठकर संवाद, संवेदनशीलता और ठोस कूटनीतिक प्रयासों के जरिए इस संकट से निपट पाते हैं या नहीं।