

लखनऊ से एक बड़ी और ऐतिहासिक खबर सामने आई है जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति, समाज और प्रशासनिक ढांचे में गहरी हलचल मचा दी है। प्रदेश सरकार ने जाति के नाम पर होने वाले किसी भी तरह के दिखावे, रैलियों और वाहनों पर जाति आधारित प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी कर दिया है।
लखनऊ: उत्तर प्रदेश के लखनऊ से एक बड़ी और ऐतिहासिक खबर सामने आई है जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति, समाज और प्रशासनिक ढांचे में गहरी हलचल मचा दी है। प्रदेश सरकार ने जाति के नाम पर होने वाले किसी भी तरह के दिखावे, रैलियों और वाहनों पर जाति आधारित प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी कर दिया है। कल रात राज्य के मुख्य सचिव दीपक कुमार ने शासनादेश जारी करते हुए साफ कर दिया कि अब उत्तर प्रदेश में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से नहीं कर सकेगा। चाहे वह दोपहिया या चारपहिया वाहन पर जाति सूचक स्टीकर, झंडा या बोर्ड लगाने का मामला हो या फिर जातिगत शक्ति प्रदर्शन वाली रैली का आयोजन, सब पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गई है।
वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश ने अपने चर्चित शो THE MTA Speaks में सटीक विश्लेषण किया है।
यह फैसला दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया आदेश के अनुपालन में लिया गया है। कोर्ट ने 16 और 19 सितम्बर 2025 को लगातार दो अहम आदेशों में जातिगत महिमामंडन को न केवल संवैधानिक नैतिकता के खिलाफ बल्कि राष्ट्र-विरोधी करार दिया था। अदालत में दाखिल याचिका संख्या Criminal Misc Writ U/s 482, केस नंबर 31545/2024 और प्रवीण छेत्री बनाम राज्य मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस विनोद दिवाकर की सिंगल बेंच ने यह ऐतिहासिक टिप्पणी की थी। याचिकाकर्ता ने आपत्ति जताई थी कि उसकी गिरफ्तारी के दौरान दर्ज एफआईआर और जब्ती मेमो में उसकी जाति का उल्लेख किया गया, जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। अदालत ने इस पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि जातिगत पहचान दर्ज करना संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है और जाति का महिमामंडन राष्ट्र-विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देता है। कोर्ट ने कहा कि वंश के बजाय संविधान के प्रति निष्ठा ही सच्ची देशभक्ति है।
2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट निर्देश दिया कि पुलिस अब किसी भी अभियुक्त, मुखबिर या गवाह की जाति दर्ज नहीं करेगी। पहचान के लिए केवल आधुनिक साधन जैसे फिंगरप्रिंट, आधार नंबर, मोबाइल नंबर और माता-पिता के नाम पर्याप्त हैं। कोर्ट ने पुलिस रिकॉर्ड्स से जाति वाले सभी कॉलम हटाने, सरकारी और कानूनी दस्तावेजों में जाति के उल्लेख पर रोक लगाने और सार्वजनिक स्थलों से जातिगत प्रतीक हटाने का निर्देश दिया। इसके साथ ही अदालत ने सरकार को चेतावनी दी कि अगर 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो जाति व्यवस्था को जड़ से समाप्त करना ही होगा।
आईटी नियमों को मजबूत
अदालत ने यह भी सुझाव दिया कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए पुलिस फार्मों में पिता या पति के नाम के साथ अब मां का नाम भी अनिवार्य रूप से शामिल होना चाहिए। कोर्ट ने यह आदेश भी दिए कि इंटरनेट मीडिया पर जाति के उल्लेख को रोकने के लिए आईटी नियमों को मजबूत किया जाए और नागरिकों को ऐसी सामग्री की शिकायत करने की सरल व्यवस्था मिले। अदालत ने साफ कहा कि 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लक्ष्य में जाति का उन्मूलन एक केंद्रीय एजेंडा होना चाहिए और राज्य व केंद्र सरकारों को संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप ठोस कदम उठाने होंगे।
21 सितम्बर को एक विस्तृत शासनादेश जारी
अदालत के इस आदेश के बाद मुख्य सचिव दीपक कुमार ने 21 सितम्बर को एक विस्तृत शासनादेश जारी किया, जिसकी प्रति सभी जिलाधिकारियों, पुलिस आयुक्तों, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों, आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को तत्काल अनुपालन के लिए भेज दी गई। गृह (पुलिस) अनुभाग-3 की ओर से भेजे गए इस पत्र में दस बिंदुओं में साफ कहा गया है कि अब पुलिस रिकॉर्ड्स जैसे एफआईआर, गिरफ्तारी मेमो, चार्जशीट और अन्य दस्तावेजों में किसी भी व्यक्ति की जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा। आरोपी की पहचान के लिए अब पिता के साथ-साथ माता का नाम अनिवार्य रूप से लिखा जाएगा। आदेश में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के क्राइम क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम (सीसीटीएनएस) में जाति भरने वाले कॉलम को हटाने के लिए यूपी पुलिस एनसीआरबी को पत्र लिखेगी।
राज्य में जाति आधारित रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध
सिर्फ पुलिस रिकॉर्ड्स ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्थलों पर भी यह आदेश लागू होगा। गांवों, कस्बों और कॉलोनियों में लगे जाति-बाहुल्य क्षेत्र घोषित करने वाले बोर्ड हटाए जाएंगे। सरकारी परिसरों और पुलिस कार्यालयों में लगे किसी भी प्रकार के जाति सूचक चिह्न, बैनर या संदेश को तुरंत हटाने के निर्देश दिए गए हैं। इसी प्रकार थानों के नोटिस बोर्ड, वाहनों व साइन बोर्ड से जातीय संकेत और जातीय नारे हटाए जाएंगे। आदेश में यह भी कहा गया है कि राज्य में जाति आधारित रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा और इंटरनेट मीडिया पर भी जाति आधारित कंटेंट नहीं डाला जा सकेगा। हालांकि एससी-एसटी एक्ट जैसे मामलों में जहां कानूनी रूप से जाति लिखना आवश्यक है, वहां यह प्रतिबंध लागू नहीं होगा। इन आदेशों की प्रभावी पालना के लिए पुलिस नियमावली और मानक संचालन प्रक्रिया यानी एसओपी में संशोधन किया जाएगा।
आदेश का उल्लंघन करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई
सरकार ने सोशल मीडिया पर भी सख्ती बरतने का ऐलान किया है। आदेश के अनुसार, इंटरनेट मीडिया और सोशल प्लेटफार्मों पर जाति का महिमामंडन करने वाले या जातीय नफरत फैलाने वाले कंटेंट के खिलाफ आईटी एक्ट के तहत कार्रवाई की जाएगी। जाति आधारित रैलियों या सार्वजनिक कार्यक्रमों पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा और आदेश का उल्लंघन करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। सभी वरिष्ठ अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है कि इस आदेश का हर स्तर पर पालन हो और कड़ी निगरानी रखी जाए।
राज्य में पंचायत चुनावों की तैयारियां
इन आदेशों को उस समय लागू किया जा रहा है जब राज्य में पंचायत चुनावों की तैयारियां चल रही हैं और सभी प्रमुख राजनीतिक दल आगामी विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने में जुटे हैं। कहा जा रहा है कि भाजपा सरकार इस कदम के जरिए पर्दे के पीछे से समाजवादी पार्टी को घेरना चाहती है क्योंकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव का पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नारा इन दिनों यूपी के गांव-गांव में लोकप्रिय हो गया है। पीडीए से जुड़े लोग अपने अधिकारों को लेकर ज्यादा जागरूक हुए हैं और सपा लोकसभा चुनाव से पहले ही विधानसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर पीडीए की राजनीति की नींव मजबूत कर रही है। मौके की नजाकत को देखते हुए सपा ने अपने नारे का दायरा भी बढ़ाया है।
जाति के दिखावे पर रोक लगाने से जातिवाद खत्म नहीं
इस फैसले के राजनीतिक असर भी सामने आने लगे हैं। समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने सोशल मीडिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि केवल वाहनों या रैलियों में जाति के दिखावे पर रोक लगाने से जातिवाद खत्म नहीं होगा। उन्होंने पूछा कि पांच हजार सालों से मन में बसी जातिगत सोच को खत्म करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे? उन्होंने यह भी सवाल किया कि वस्त्र, वेशभूषा और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से जाति प्रदर्शन की मानसिकता को मिटाने, नाम से पहले जाति पूछने की आदत को खत्म करने और जातिगत अपमानजनक साजिशों को रोकने के लिए सरकार के पास क्या ठोस योजना है।
इसके दायरे में संशोधन की स्थिति
वहीं, शासन के भीतर इस आदेश को एक ऐतिहासिक और दूरगामी कदम माना जा रहा है। सरकार का कहना है कि यह नीति समाज में जातिगत भेदभाव की प्रवृत्तियों को समाप्त करने की उसकी घोषित प्रतिबद्धता का हिस्सा है। अधिकारियों का मानना है कि पुलिस रिकॉर्ड्स और सार्वजनिक जीवन से जाति का उल्लेख हटाने से सामाजिक बराबरी की दिशा में एक बड़ा संदेश जाएगा और लोगों की मानसिकता में धीरे-धीरे बदलाव आएगा। हालांकि ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह शासनादेश अभी अंतिम रूप से पक्का नहीं हुआ है। जिस तरह से प्रमुख राजनीतिक दलों का विरोध सामने आ रहा है, उससे यह संभावना जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में यह मामला सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक पहुंच सकता है। यदि उच्चतम न्यायालय में इस पर सुनवाई होती है तो आदेश के क्रियान्वयन पर अस्थायी रोक लगने या इसके दायरे में संशोधन की स्थिति भी बन सकती है।
ऐतिहासिक फैसला सुनाया
इस पूरे घटनाक्रम की जड़ें उस मामले से जुड़ी हैं जिसमें इटावा जिले के एक शराब तस्करी मामले में आरोपी प्रवीण छेत्री ने याचिका दायर कर यह मुद्दा उठाया था। उसने कहा कि उसकी एफआईआर में उसकी जाति का जिक्र कर उसका अपमान किया गया है। कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि जातिगत महिमामंडन राष्ट्र-विरोधी है और भविष्य के लिए इससे बड़ा खतरा कोई नहीं हो सकता। अदालत ने नीति निर्माताओं को सुझाव दिया कि जाति आधारित संस्थानों की बजाय अंतर-जातीय संस्थानों और सामुदायिक केंद्रों को बढ़ावा दिया जाए।
जाति व्यवस्था के खिलाफ एक सख्त और प्रतीकात्मक संदेश
अब इस आदेश के लागू होने के बाद प्रदेश भर में तेज़ी से कार्रवाई शुरू हो गई है। थानों, पुलिस वाहनों और सरकारी दफ्तरों से जाति सूचक बोर्ड और प्रतीक हटाने का काम शुरू हो चुका है। सोशल मीडिया पर भी निगरानी तेज कर दी गई है। प्रशासन ने जिलों को रिपोर्ट पेश करने को कहा है ताकि आदेश के अनुपालन की स्थिति पर नियमित समीक्षा की जा सके। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम भारतीय समाज में गहराई तक पैठी जाति व्यवस्था के खिलाफ एक सख्त और प्रतीकात्मक संदेश देता है। जहां एक ओर इसे सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में मील का पत्थर कहा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह बहस भी तेज हो गई है कि केवल प्रतीकों पर रोक लगाकर क्या सदियों पुरानी मानसिकता बदली जा सकती है। फिलहाल इतना तय है कि इस आदेश ने राज्य की राजनीति और समाज में जातिवाद पर एक नई बहस को जन्म दे दिया है और आने वाले दिनों में इसका असर पूरे देश में महसूस किया जा सकता है।