

केन्द्र सरकार ने जुलाई 2021 को सहकारिता मंत्रालय बनाया। इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘सहकार से समृद्धि’ के विजन को साकार करना है। हालांकि सहकारिता हमारे समाज और देश में कई वर्षों से चली आ रही है। इस लेख में जानिये सहकारिता ने कैसे बदला हमारे समाज को और क्या हैं सहकारिता के सिद्धांत
केंद्र सरकार ने जुलाई 2021 को सहकारिता मंत्रालय बनाया
New Delhi: यह स्थापित सत्य है कि अकेले मनुष्य की शक्ति सीमित होती है और सामूहिक प्रयास से बड़े-बड़े कार्य संभव हो सकते हैं। इसी विचार से सहकारिता का सिद्धांत सामने आया और समाज को दिशा देने लगा। सहभागी व्यवस्था का सूत्र सहकारिता इसलिए है क्योंकि इसमें प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा से जुड़ा हो, अपनी भूमिका निभाकर समाज के सामूहिक कल्याण में योगदान करता है।
सहकारिता केवल आर्थिक संगठन की व्यवस्था नहीं है बल्कि यह जीवन-दर्शन है, जिसमें “हम” की भावना “मैं” पर भारी पड़ती है। इसका मूल भाव यही है कि व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सामूहिक भलाई को प्राथमिकता दी जाए। भारत जैसे विविधताओं से भरे बहुभाषी देश में जहाँ अनगिनत बोलियाँ, परंपराएँ और संस्कृतियाँ विद्यमान हैं, सहकारिता ही वह सूत्र है जो सबको एक साथ जोड़ सकती है और सहभागी व्यवस्था को सशक्त बना सकती है।
स्वतंत्रता के बाद सरकार ने सहकारी आंदोलन को औपचारिक रूप से प्रोत्साहन दिया। केन्द्र सरकार द्वारा 6 जुलाई 2021 को सहकारिता मंत्रालय बनाया गया। इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘सहकार से समृद्धि’ के विजन को साकार करना है। अमित शाह के नेतृत्व में यह मंत्रालय सहकारी समितियों को एक समर्पित प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढ़ांचा प्रदान करता है और उन्हें व्यापार में आसानी और पारदर्शिता के लिए प्रोत्साहित करता है। राष्ट्रीय स्तर पर विकास की गति तेज करने, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने, किसानों और मजदूरों को संगठित करने तथा गरीबी दूर करने में सहकारी संस्थाएँ महत्वपूर्ण साधन बन गई है।
सहभागी व्यवस्था का तात्पर्य यह है कि समाज में योजनाओं और निर्णयों के निर्माण में सभी की भागीदारी से हो। लोकतंत्र की यही आत्मा है कि जनता केवल मतदान करने तक सीमित न रहे, बल्कि विकास की प्रक्रिया में भी उसकी सीधी और सक्रिय भूमिका हो। जब किसी गाँव में सिंचाई की समस्या हो और किसान मिलकर सहकारी समिति बनाकर समाधान करें, तो यह न केवल सामूहिक प्रयास का परिणाम होता है बल्कि सहभागी व्यवस्था का आदर्श उदाहरण भी है। इसमें हर व्यक्ति निर्णय लेने से लेकर लाभ बाँटने तक सम्मिलित रहता है। भारत में सहकारिता का इतिहास प्राचीन है। ग्राम पंचायतें, आपसी श्रमदान की परंपरा, संयुक्त परिवार व्यवस्थायें सभी सहकारिता के ही उदाहरण हैं। वेदों और उपनिषदों में भी सहयोग और सामूहिकता की भावना पर जोर दिया गया है। स्वतंत्रता आंदोलन में भी यही भावना दिखाई दी जब करोड़ों लोग मिलकर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खड़े हुए।
सहकारिता कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है जैसे स्वैच्छिक सदस्यता, लोकतांत्रिक नियंत्रण, समानता और न्याय, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता, शिक्षा और प्रशिक्षण, तथा सामुदायिक विकास। इन सिद्धांतों का पालन करके ही कोई भी सहकारी संस्था सफल हो सकती है। इसका उद्देश्य केवल आर्थिक लाभ अर्जित करना नहीं बल्कि समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों को आगे लाना तथा सभी को समान अवसर उपलब्ध कराना है। उदाहरण के लिए किसी दुग्ध सहकारी संस्था में छोटे-बड़े सभी पशुपालक समान रूप से योगदान कर सकते हैं और लाभ भी समान रूप से पा सकते हैं। इससे सामाजिक विषमताएँ घटती हैं और आपसी सहयोग की भावना प्रबल होती है।
आर्थिक दृष्टि से सहकारिता ने भारत जैसे कृषि प्रधान देश में विकास की मजबूत नींव रखी है। सहकारी बैंक, कृषि सहकारी समितियाँ, डेयरी सहकारिता जैसे अमूल, उपभोक्ता सहकारी संस्थाएँ और आवास सहकारी समितियाँ आम नागरिक को सीधा लाभ देती हैं। अमूल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसने लाखों किसानों को संगठित करके दुग्ध उत्पादन और विपणन के क्षेत्र में क्रांति ला दी। यह केवल आर्थिक सफलता की कहानी नहीं है बल्कि यह इस बात का द्योतक है कि सामूहिक प्रयास कैसे वैश्विक स्तर पर मिसाल बन सकता है। सहभागी व्यवस्था में सहकारिता आर्थिक असमानता को कम करने का साधन है। यह अमीर और गरीब के बीच की खाई घटाती है और विकास के अवसर सबको समान रूप से प्रदान करती है।
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भी सहकारिता का महत्व स्पष्ट है। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता केवल चुनावों में वोट डालकर अपने कर्तव्य से मुक्त न हो जाए, बल्कि नीतियों और योजनाओं के निर्माण में भी उसकी सहभागिता हो। सहकारिता इस दिशा में ढाँचा प्रस्तुत करती है। सहकारी समितियाँ, पंचायतें, स्वयं सहायता समूह आदि सभी सब सहभागी लोकतंत्र के अंग हैं। जब किसी राज्य में ग्रामीण विकास की योजना बनाई जाती है तो ग्राम सभा में सबसे पहले लोगों की राय ली जाती है, फिर सहकारी समितियाँ और पंचायतें मिलकर उसे लागू करती हैं। इस प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों बनी रहती हैं।
ग्रामीण विकास में सहकारिता का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत की अधिकांश आबादी आज भी गाँवों में निवास करती है। बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याओं का समाधान केवल सरकारी योजनाओं से संभव नहीं है, बल्कि ग्रामीण लोग स्वयं संगठित होकर जब सहकारी समितियों और स्व-सहायता समूहों में काम करते हैं, तभी वास्तविक विकास होता है। ग्रामीण सहकारी बैंक, कृषि ऋण समितियाँ, दुग्ध सहकारी संघ, हस्तशिल्प सहकार ये सभी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देते हैं। महिला स्व-सहायता समूहों ने महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाया है जिससे ग्रामीण समाज में व्यापक परिवर्तन देखने को मिला है।
आज डिजिटल युग में सहकारिता का स्वरूप भी बदल रहा है। ई-कॉमर्स प्लेटफार्म, ऑनलाइन सहकारी विपणन और डिजिटल भुगतान प्रणाली ने सहकारिता को नई दिशा दी है। अब किसान अपनी उपज सीधे डिजिटल सहकारी पोर्टल पर बेच सकते हैं, उपभोक्ता ऑनलाइन सहकारी बाजार से खरीद सकते हैं और लेन-देन में पारदर्शिता स्वतः आ जाती है। भविष्य में डिजिटल सहकारिता ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच की दूरी को कम करेगी और विकास को नए आयाम देगी।
व्यावहारिक धरातल पर पारदर्शिता, नियमवद्धता, समयवद्धता, संवेदनशीलता और सदस्यों की सक्रियता से संस्था मजबूत बनती है। इनकी सफलता के लिए पूंजी और संसाधनों की व्यवस्था तथा प्रशिक्षण एवं तकनीकी जानकारी का क्रम निरंतर चलते रहना चाहिए। इसके लिए सहकारिता को केवल संस्था न मानकर जीवनशैली के रूप में अपनाया जाए और सभी सदस्य ईमानदारी तथा सक्रियता से अपनी भूमिका निभाएँ।
सहकारिता केवल आर्थिक या सामाजिक व्यवस्था भर नहीं बल्कि जीवन का दर्शन है। यह हर व्यक्ति को विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनाता है और सामूहिकता की भावना को जागृत करता है। जब लोग मिलकर सहयोग की शक्ति को पहचानते हैं और उसका उपयोग करते हैं, तब समाज में समानता, न्याय और समृद्धि स्वतः स्थापित हो जाती है। आज की परिस्थितियों में आवश्यक है कि सहकारिता को केवल संस्थागत ढाँचे तक सीमित न रखकर शिक्षा, परिवार, समाज, उद्योग एवं राजनीति तथा अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में अपनाया जाए। तभी हम वास्तविक सहभागी व्यवस्था की ओर बढ़ पाएँगे। भारत को आत्मनिर्भर एवं विकसित राष्ट्र बनाने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा।
लेखक: प्रोफेसर श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी