

उत्तरकाशी के धराली में हालिया त्रासदी केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह एक चेतावनी थी — एक साइलेंट स्क्रीम, जो पहाड़ों, नदियों, पेड़ों और ग्लेशियरों के टूटते संतुलन से निकल रही थी। बीते दो दशकों में जिस ‘विकास मॉडल’ को उत्तराखंड में अपनाया गया है, वह अब ‘विनाश मॉडल’ जैसा दिखने लगा है।
पहाड़ों पर मंडरा रहा है बड़ा खतरा
Haridwar: उत्तरकाशी के धराली में हालिया त्रासदी केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह एक चेतावनी थी — एक साइलेंट स्क्रीम, जो पहाड़ों, नदियों, पेड़ों और ग्लेशियरों के टूटते संतुलन से निकल रही थी। बीते दो दशकों में जिस ‘विकास मॉडल’ को उत्तराखंड में अपनाया गया है, वह अब ‘विनाश मॉडल’ जैसा दिखने लगा है।
जिस उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ कहा जाता है, वहां चारधाम परियोजना, सड़क चौड़ीकरण, रेलवे कॉरिडोर, हेलीपैड्स, ट्रांसमिशन लाइनें और अब खनन — सब कुछ जैसे एक ही संदेश दे रहे हैं: प्रकृति के धैर्य की परीक्षा ली जा रही है।
उत्तराखंड में पिछले 20 सालों में 1.85 लाख हेक्टेयर जंगल विकास कार्यों के नाम पर काट दिए गए — यह आंकड़ा दिल्ली के कुल क्षेत्रफल से भी बड़ा है।
यह केवल लकड़ी की कटाई नहीं थी, यह पर्वतों की आत्मा को घायल करने जैसा था। अब जब भूस्खलन या बाढ़ आती है, तो ये ‘हादसे’ नहीं होते, बल्कि वे नतीजे होते हैं जिनकी नींव हमने खुद रखी होती है।
चारधाम हाईवे, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन या सीमावर्ती सड़कों का निर्माण – यह सब रणनीतिक दृष्टि से जरूरी हो सकते हैं, लेकिन पारिस्थितिकी की कीमत पर नहीं।
भूवैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जल स्रोत सूख रहे हैं और पहाड़ों की स्थिरता पर संकट है।
क्या यह विकास है या प्राकृतिक विनाश का सुनियोजित तंत्र?
जहाँ कभी सालाना 1-2 करोड़ पर्यटक आते थे, आज वह संख्या 5 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। भारी ट्रैफिक, होटल निर्माण, प्लास्टिक कचरा, और यात्रियों की अनियंत्रित भीड़ — यह सब पहाड़ों की जैव-विविधता और स्थिरता के खिलाफ है।
नतीजा?
धराली की त्रासदी हमें बताती है कि प्रकृति की चेतावनियां अब और नजरअंदाज नहीं की जा सकतीं।
यह समय है जब उत्तराखंड को केवल टूरिज्म हब या स्ट्रैटेजिक ज़ोन नहीं, बल्कि इकोलॉजिकल ज़ोन मानकर चलना होगा।