

बिजनौर में दशहरे पर रावण और मेघनाद के विशाल पुतलों का निर्माण पिछले 50 वर्षों से मुस्लिम परिवार कर रहा है। यह परंपरा बूंदु से शुरू होकर अब उनकी तीसरी पीढ़ी तक पहुंच गई है। यह परिवार हिन्दू-मुस्लिम एकता की अनूठी मिसाल पेश कर रहा है।
मुस्लिम परिवार द्वारा बनाया गया रावण का पुतला
Bijnor: उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में विजयदशमी (दशहरा) पर्व की तैयारियां जोरों पर हैं। हर साल की तरह इस बार भी रामलीला मैदान में रावण और मेघनाद के पुतलों का भव्य दहन किया जाएगा। इस बार 35 फीट ऊंचा रावण और 30 फीट ऊंचा मेघनाद का पुतला तैयार किया गया है। खास बात यह है कि इन पुतलों को बनाने वाले कारीगर मुस्लिम समुदाय से हैं, जो पिछले 50 वर्षों से इस परंपरा को निभा रहे हैं।
इस काम की शुरुआत सबसे पहले बूंदु नामक शख्स ने की थी, जो एक मुस्लिम कारीगर थे। उन्होंने ही दशहरा के अवसर पर रावण के पुतले बनाने का बीड़ा उठाया था। उनके बाद उनके बेटे ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया और अब उनके पोते इस विरासत को संभाल रहे हैं। आज उनके परिवार की तीसरी पीढ़ी सलीम खान, अबरार अहमद, शाहवेज़ अहमद, अमीनुद्दीन, अफ़सान और हसीनुद्दीन इस कला को पूरी मेहनत और निष्ठा के साथ निभा रही है।
इस परिवार के पास रावण बनाने का आधिकारिक लाइसेंस भी है, जो बूंदु के नाम पर जारी किया गया था। उनका लाइसेंस नंबर 85 है, जो दशहरे के आयोजन में उनके योगदान को प्रमाणित करता है। इस पुतला निर्माण कार्य को केवल एक व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल के रूप में देखा जाता है।
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कारीगर सलीम खान कहते हैं, "हमारे लिए यह केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी और सम्मान की बात है। हर साल हम पूरे मन से पुतले बनाते हैं ताकि दशहरे के दिन लोग बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मना सकें।" शाहवेज़ अहमद जोड़ते हैं, "हमारे दादा ने जो शुरू किया, उसे हम आगे बढ़ा रहे हैं। यह हमारी साझी संस्कृति का प्रतीक है।"
पुतलों को बनाने में करीब 15 दिन लगते हैं। इसमें बांस, कपड़ा, कागज और आतिशबाज़ी का प्रयोग किया जाता है। सबसे पहले ढांचा तैयार किया जाता है, फिर उसे सजाया जाता है और अंत में फिनिशिंग टच दिया जाता है। रावण और मेघनाद के चेहरे भी बेहद जीवंत बनाए जाते हैं, जिससे दर्शकों को वास्तविकता का अनुभव हो।
रावण दहन की प्रथा कहां से शुरू हुई?
रामलीला समिति के अध्यक्ष का कहना है कि यह परिवार दशहरे की पहचान बन चुका है। "बिजनौर में दशहरे की रामलीला की बात हो और इस परिवार का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। हर साल हजारों लोग इनके बनाए पुतले के दहन को देखने आते हैं।" देश के इस दौर में जब समाज में धार्मिक तनाव की खबरें आम हो गई हैं, बिजनौर का यह परिवार सच्चे अर्थों में गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक बनकर सामने आया है। उनका काम बताता है कि कला और संस्कृति की कोई जात-पात या धर्म नहीं होती, बल्कि यह सबको जोड़ती है।