DN Exclusive: क्या है शिक्षा मित्रों का दर्द? क़ानूनी पहलू और समाधान..
ऐसे शिक्षामित्र जो लंबे समय से राज्य की शिक्षा व्यवस्था का मजबूत स्तंभ रहे हों और संकट की घड़ी में सरकार उनसे किनारा कर ले, तो शिक्षामित्रों में सरकार के खिलाफ रोष होना स्वाभाविक है। हकीकत में क्या है शिक्षा मित्रों का दर्द? इसके क्या क़ानूनी पहलू है और वास्तव में इसका समाधान क्या हो सकता है? इसकी पड़ताल करती डाइनामाइट न्यूज़ की यह एक्सक्लूसिव रिपोर्ट..
नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में 1.72 लाख शिक्षामित्रों का भविष्य खतरे में है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शिक्षामित्रों ने राज्य सरकार से जो उम्मीद जताई थी, वह भी धरी की धरी रह गयी है। पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से राज्य की शिक्षा व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे शिक्षामित्रों ने कभी सोचा भी न होगा कि उन्हें एक दिन राज्य सरकार की बेवफाई का शिकार होना पड़ेगा। शिक्षामित्रों में अब राज्य की योगी और केन्द्र की मोदी सरकार के खिलाफ भारी आक्रोश है। शिक्षामित्रों का मानना है कि यदि सरकार चाहती तो अध्यादेश पास करके उनके संकट को टाल सकती थी लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। शिक्षामित्रों के बढ़ते आक्रोश को देखकर आशंका जतायी जा रही है कि आने वाले दिनों में उनका आंदोलन और भी उग्र रुप ले सकता है। दिल्ली के जंतर मंतर पर चार दिन के आंदोलन के बाद शिक्षामित्रों ने ऐलान किया है कि वे 22 सितंबर से वाराणसी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने फिर शक्ति प्रदर्शन करेंगे।
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लाखों-हजारों परिवारों का भी संकट
शिक्षामित्रों के इस संकट के कई पहलू है, जिन पर सरकार को समय रहते ध्यान देना चाहिये। दरअसल देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों के रूप में यह संकट केवल 1.72 लाख लोगों का नहीं है, बल्कि उन परिवारों का भी है, जिनका पालन-पोषण इन शिक्षामित्रों के वेतन से होता है। शिक्षामित्रों की एक बड़ी और गंभीर समस्या यह भी है कि जिन शिक्षामित्रों के भविष्य पर यह संकट खड़ा हुआ है उनमें से कई की उम्र 50-55 वर्ष की हो चुकी है। उम्र के इस पड़ाव पर किसी भी व्यक्ति का रोजगार खतरे में पड़ना एक बड़ी समस्या है। इस उम्र में पेशे को बदलना भी लगभग असंभव सा होता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर मानवीय दृष्टिकोण से भी इस समस्या को सरकार सुलझा सकती है।
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सुप्रीम कोर्ट से नहीं सरकार से नाराज हैं शिक्षामित्र
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हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में शिक्षामित्रों को नियमित करने और सहायक अध्यापक के रूप में बने रहने के लिये उन्हें दो वर्षों में अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास करने को कहा है। कोर्ट ने कहा कि शिक्षामित्रों को टीईटी की औपचारिक परीक्षा में बैठना होगा और लगातार दो प्रयासों में टीईटी पास करनी होगी। अधिकतर शिक्षामित्रों का कहना है कि वे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर राजी है, लेकिन उनका असली गुस्सा राज्य सरकार द्वारा नये सिरे से तय किये गये 10 हजार रूपये के मासिक मानदेय को लेकर है। सरकार को यह जरूर सोचना चाहिये था कि पहले जो शिक्षामित्र 40 से 45 हजार मासिक वेतन पाते थे, अब वो क्यों कर 10 हजार रूपये का मानदेय स्वीकार करेंगे।
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सरकार की इच्छाशक्ति पर बड़ा सवाल
शिक्षामित्रों ने डाइनामाइट न्यूज़ को बताया कि वे किसी भी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं है। इस अन्याय के खिलाफ वे हर तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं। धरना-प्रदर्शन, आंदोलन से लेकर कानूनी विकल्प जैसे हर हथियार को आजमा रहे हैं। शिक्षामित्रों का कहना है कि वे हार नहीं मानेंगे, इसलिये उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में भी पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है, जिस पर अगले हफ्ते सुनवाई हो सकती है। शिक्षामित्रों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा है कि राज्य सरकार चाहे तो नियम बनाकर शिक्षामित्रों को पूर्ण अध्यापक का दर्जा दे सकती है। अब ऐसे में सरकार की इच्छाशक्ति पर सवाल उठना लाजमी है। ऐसे शिक्षामित्र जो लंबे समय से राज्य की शिक्षा व्यवस्था का मजबूत स्तंभ रहे हों और संकट की घड़ी में सरकार उनसे किनारा कर ले, तो शिक्षामित्रों में सरकार के खिलाफ रोष होना स्वाभाविक है। समय रहते सरकार को एक बार फिर अपने निर्णय की समीक्षा करनी चाहिये। जितनी जल्दी हो शिक्षामित्रों को उनके संकट और दर्द से उबारने की कोशिश करनी चाहिये।
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क्या है कानूनी पहलू?
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12 सितंबर 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शिक्षामित्रों का समायोजन निरस्त कर दिया था। शिक्षामित्र इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे। 17 मई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा मित्रों पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। 25 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और यू.यू. ललित की विशेष पीठ ने अपने आदेश में कहा कि शिक्षामित्रों के नियमितीकरण को गैरकानूनी ठहराने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश में कोई खामी नहीं है। कोर्ट ने यह भी साफ किया कि राज्य को शिक्षा का अधिकार कानून-2009 (आरटीई एक्ट) की धारा 23(2) के तहत शिक्षकों के लिए न्यूनतम योग्यताओं को घटाने का कोई अधिकार नहीं है। आरटीई की बाध्यता के कारण राज्य सरकार ने योग्यताओं में रियायत देकर शिक्षामित्रों को नियुक्ति दी थी। पीठ ने कहा कि कानून के अनुसार शिक्षामित्र कभी शिक्षक थे ही नहीं, क्योंकि वे योग्य नहीं थे।
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शिक्षा का अधिकार कानून-2009
'आरटीई एक्ट' के तहत कक्षा 1 से 8 तक अप्रशिक्षित शिक्षक स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) ने शिक्षकों के मानक तय किये। इसमें प्रशिक्षित स्नातक को अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास करने पर ही शिक्षक पद के योग्य माना गया। पहले से पढ़ा रहे शिक्षकों के लिए भी प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य है, लेकिन उन्हें टीईटी से छूट दी जाएगी। कुछ शिक्षामित्रों को भी इसी नियम के तहत 2011 से दूरस्थ प्रणाली से दो वर्षीय प्रशिक्षण दिलवाया गया। 2014 में टीईटी से छूट देते हुए सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्ति देने की प्रक्रिया शुरू की गई। यहीं पर नियमों से खेल हुआ, क्योंकि नई नियुक्ति के लिए टीईटी अनिवार्य है। सहायक अध्यापक के पदों पर समायोजन के नाम पर शिक्षमित्रों को नई नियुक्ति दी गई।
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शिक्षामित्रों और उनके वकीलों की दलील
शिक्षामित्रों का कहना है कि उनकी नियुक्ति शिक्षामित्र के रूप में नहीं बल्कि सहायक शिक्षकों के रूप में हुई है। उनके वकीलों का कहना था कि राज्य में शिक्षकों की कमी को ध्यान में रखते हुए एक स्कीम के तहत शिक्षामित्रों के रूप में पहले उनकी नियुक्ति हुई थी, जो बाद में सहायक शिक्षक के रूप में हुई। उनके वकीलों का कहना उनकी नियुक्ति पिछले दरवाजे से नहीं हुई थी। शिक्षामित्र पढ़ाना जानते हैं, उनके पास अनुभव है और वे वर्षों से पढ़ा रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उनके साथ मानवीय रवैया अपनाया जाना चाहिए।