Arbitration And Conciliation Law: अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे में मध्यस्थता कानून का कितना योगदान? जानिये इसका भविष्य

देश की अदालतों में सरल और प्रभावी विवाद समाधान प्रणाली के लिये समय-समय पर पहल होती रही है, जिसमें मध्यस्थता कानून महत्वपूर्ण है। डाइनामाइट न्यूज़ की रिपोर्ट में जानिये मध्यस्थता कानून के बारे में

Post Published By: Subhash Raturi
Updated : 19 May 2025, 2:42 PM IST
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नई दिल्ली: आबादी के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा देश भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र भी है, जहां की तमाम अदालतों में विश्व के सबसे ज्यादा कानूनी मामले लंबित है। भारत की विभिन्न अदालतों में इस समय 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित है। अकेले सुप्रीम कोर्ट में लगभग 85000 और विभिन्न उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले विचाराधीन हैं। देश के जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में स्थिति बेहद चिंताजनक है, जहां सबसे अधिक लगभग 4,54,00,000 मामले लंबित हैं।

इसी कारण सरल, त्वरित और प्रभावी विवाद समाधान प्रणाली के लिये देश में समय-समय पर कई तरह की पहल होती रही है, जिसमें मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 बेहद महत्वपूर्ण है।

देश की न्यायपालिका के समक्ष लंबित मामलों को निपटाने की चुनौतियों के बीच कई कानूनी मध्यस्थता संस्थाएं भी खुल रही हैं, लेकिन भारत में मध्यस्थता में भी लंबा समय लगने लगा है।

मध्यस्थता और सुलह कानून
डाइनामाइट न्यूज़ की इस रिपोर्ट में हम आपको बता रहे हैं मध्यस्थता कानून और अदालतों में लंबित करोड़ों मामलों के सुलझाने की प्रक्रिया में मध्यस्थता और सुलह कानून का क्या योगदान है।

देश में इन दिनों विवादों के त्वरित निपटारे के लिये देश में ऑनलाइन और ई-कोर्ट प्रणाली अमल में लाई जा रही है लेकिन इससे लंबित मामलों की विकट समस्याएं कितनी सुलझेंगी, अभी इसके नतीजे आने बाकी है। ऐसे में देश में सरल, त्वरित, प्रभावी और किफायती विवाद समाधान प्रणाली के लिये देश में बहुत पहले ही मध्यस्थता कानून को अधिनियमित किया गया। हालांकि भारत में मध्यस्ता कानून ब्रिटिश काल में ही प्रभावी है लेकिन मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 मध्यस्थता और सुलह (Arbitration and Conciliation) को नियंत्रित करने वाला एक महत्वपूर्ण कानून है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 घरेलू मध्यस्थता (भारत के भीतर के विवाद) के साथ अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता (भारत के बाहर या दो देशों के बीच होने वाले विवादों के समाधान) लिए सरल कानूनी प्रक्रियाएं और नियम प्रदान करता है। इसके तहत घरेलू मध्यस्थता, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता, विदेशी मध्यस्थता के जरिये अदालतों से बाहर किसी विवाद को सुलझाना और तर्कसंगत फैसला लेना शामिल है। यह अधिनियम कानून के दायरे में मध्यस्थता और सुलह के माध्यम से विवादों के समाधान के लिए एक लचीला ढांचा प्रदान करता है, जो अदालत में मुकदमेबाजी की तुलना में अधिक त्वरित, किफायती और आसान है। इस कानून के तहत एक मध्यस्थ की मदद से पक्षों के बीच समझौता कराया जाता है।

अधिनियम में संशोधन
इस अधिनियम को 2015 और 2019 में संशोधित किया गया है, जिससे इसे और अधिक प्रभावी, कुशल और कारगर बनाया गया है। यह अधिनियम सुलह कार्यवाही करने के लिए कानून को भी परिभाषित करता है।

मध्यस्थता का भविष्य
भारत की अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामलों के बीच मध्यस्थता कानून किसी विवाद को अदालत के बाहर मध्यस्थ की मदद से सुलझाने और उचित फैसला लेने के लिये अधिसूचित किया गया है। लेकिन हाल ही में हुए कुछ कानूनी घटनाक्रमों ने इसके भविष्य पर सवाल खड़े कर दिये हैं। हाल ही में मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनर्व्याख्या की गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट यह भी साफ कर चुका है कि उसके पास मध्यस्थता फैसले को संशोधित करने की शक्ति "सीमित" है।

सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 और 37 के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित करने की अनुमति दी है। अदालतें अब सीमित परिस्थितियों में मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं। यानि मध्यस्थ द्वारा सुलझाया गये कोई विवाद फिर से कोर्ट में जा सकता है। अदालतें मध्यस्थता फैसलों को कुछ सीमित कारणों से रद्द कर सकती हैं। अदालतें मध्यस्थता न्यायाधिकरण और मध्यस्थता संस्थानों समेत मध्यस्थ को भी मध्यस्थता फैसले को संशोधित करने के लिए कह सकती हैं। यानि मध्यस्थता फैसला अब अंतिम फैसला नहीं हो सकता है, अपवाद की स्थिति में इसमें सुधार की गुंजाइश बनी रहेगी।

अधिनियम की मजबूती
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की पुनर्व्याख्या के बावजूद भी इस कानून की मजबूत, विस्तारित और व्यापक पहुंच बनी हुई है। देश में बढ़ते विवादों की संख्या के साथ भारतीय मध्यस्थता प्रणाली का तेजी का विस्तार हो रहा है। इस क्षेत्र में कई कानूनविद, लॉ फॉर्म और संबंधित क्षेत्र के लोग व संस्थानों की रुचि बढ़ रही है। मध्यस्थता के जरिये घरेलू और आपसी विवाद मसलन तलाक आदि के मामले भी तेजी से सुलझाये जा रहे हैं। मध्यस्थता से मिले फैसले लोगों के लिये अदालती फैसलों से आसान होते जा रहे हैं।

जागरूकता की कमी
देश की अदालतों में पेंडिंग मामलों को सुलझाने और इनमें कमी लाने के लिये मध्यस्थता कानून की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है। लेकिन मध्यस्थता प्रक्रिया और मध्यस्थता के फायदों के बारे में जागरूकता की कमी के कारण लोग मध्यस्थता नहीं अपना पा रहे हैं।

मध्यस्थता की समय सीमा
मध्यस्थता की समय सीमा भी सवालों के घेरे में है। क्योंकि मध्यस्थता कार्यवाही को पूरा करने के लिए कोई निर्धारित समय सीमा तय नहीं की गई है। अनुमान के मुताबिक कई बार तो मधस्यथ्ता में उतना ही समय लग जाता है, जितना कि पारंपरिक अदालत में। मध्यस्थता के लिये भी पक्षों को मध्यस्थ के पास कई बार जाना पड़ता है, जो अदालतों की तारीख जैसी साबित होती है।

फीस और असमंजसता
कई मामलों और परिस्थितियों में मध्यस्थ की फीस अधिक हो सकती है। क्योंकि समय की ही तरह इसमें फीस का भी निर्धारण नहीं है। इसलिये कई बार मध्यस्थता उच्च लागत वाली साबित हो सकती है। इसके अलावा कई बार मध्यस्थता प्रक्रिया में न्यायालय का अत्यधिक हस्तक्षेप भी हो सकता है, जो इसकी सटीकता और फैसलों के लिये बाधा साबित हो सकती है।

मध्यस्थता का चलन
यह स्पष्ट आंकड़ा नहीं है कि मध्यस्थता के जरिये देश में हर साल कितने मामले सुलझाये जाते हैं और मध्यस्थता के लंबित मामलों की औसत क्या है। लेकिन अनुमान के मुताबिक देश में धीरे-धीरे मध्यस्थता का चलन बढ़ रहा है। शासन-प्रशासन और स्थानीय स्तर पर भी मध्यस्थता के लिये लोगों को प्रेरित किय जाता है। लेकिन यहां भी पारंपरिक अदालतों की तरह या तो मामलें पेडिंग हो रहे हैं या फिर उनको सुलझाने में अपेक्षा से अधिक अधिक समय लग रहा है।

पारंपरिक अदालतों पर बढ़ता बोझ
मध्यस्थता के इतर पारंपरिक अदालतों में साल दर साल लंबित मामलों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। पिछले एक दशक यानि 2010 से 2020 के बीच देश के न्यायालयों में लंबित मामलों में 2.8% की दर से वार्षिक बढ़ोतरी हुई। जनसंख्या के अलावा तमाम मोर्चों पर आगे बढ रहे भारत में इस समय कानूनी विवाद और लंबित मामलों में 3 प्रतिशत से अधिक बढ़ोत्तरी का अनुमान हैं।

मध्यस्थता और सुलह दे सकता समाधान
जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की अधीनस्थ अदालतों में सबसे अधिक 1.18 करोड़ से अधिक है। हैरान की बात ये है कि हमारी सभी अदालतों में 71 प्रतिशत (3.25 करोड़) क्रिमिनल केस और 1.09 करोड़ सिविल केस 5 साल से अधिक पुराने हैं। साल दर साल बढ़ते पेंडिंग मामलों के बोझ से अदालतों के सामने एक नये तरह का संकट शुरू हो गया है। ऐसे में मध्यस्थता और सुलह इनको सुलझाने का एक बड़ा विकल्प हो सकता है लेकिन इस दिशा में अभी और प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिये।

बड़ा सवाल
हाल के दिनों में मध्यस्थता का एक फैसले ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। सिंगापुर के अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक न्यायालय (एसआईसीसी) ने एक मध्यस्थ फैसले को रद्द किया और मध्यस्थ को कड़ी फटकार लगाई। एसआईसीसी पाया कि मध्यस्थ के रूप में कार्य करने वाले भारत के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने पेश मामले पर स्वतंत्र रूप से अपने विचार नहीं रखे, जो प्राकृतिक न्याय के नियमों का उल्लंघन है। इस चर्चित मामले में न्यायाधीश रोजर जाइल्स ने निर्धारित किया कि न्यायाधीकरण के दो सेवानिवृत्त भारतीय न्यायिक अधिकारियों ने अपने फैसले में नया विश्लेषण और तर्क के बजाय पहले से संबंधित पुराने फैसलों को आधार बनाया। यहीं नहीं पुराने फैसले को प्रस्तुत करके "बंद दिमाग" से मध्यस्थता की और पुराने फैसले को लिखा।

दरअसल, पिछले महीने सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट की अपील कोर्ट ने भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाले न्यायाधिकरण द्वारा पारित मध्यस्थता फैसले को रद्द कर दिया था। न्यायालय ने पाया था कि न्यायाधिकरण के फैसले की 47% सामग्री पिछले फैसलों की हूबहू कॉपी की गई थी। जजों ने इसमें कुछ भी नया नहीं किया, उनके मध्यस्थता के इस फैसले को कई मीडिया संस्थानों ने ‘कॉपी पेस्ट’ नाम दिया।

 

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