

भारत में लगातर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के मामले बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में सरकार ने कई सारे एप्स लॉन्च किए हैं, ताकि महिला सुरक्षा रह सके। पर क्या आपने सोचा है कि यह एप्स सही में मददगार है ? आइए फिर इसके पीछे की सच्चाई पर जरा नजर डालते हैं।
महिला सुरक्षा ऐप्स का सच
New Delhi: देशभर में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार और पुलिस विभाग लगातार नए-नए दावे करते हैं। इन्हीं दावों के बीच पिछले कुछ वर्षों में महिला सुरक्षा मोबाइल ऐप्स लॉन्च किए गए। कहा गया कि इन ऐप्स की मदद से महिलाएं केवल एक क्लिक में मदद पा सकेंगी। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही कहानी कहती है।
ऐप्स तो बने, पर जानकारी नहीं
दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की पुलिस ने अपने-अपने ऐप जारी किए। लेकिन ज्यादातर महिलाओं को इनके बारे में जानकारी ही नहीं है। NCRB की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 2023 में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यानी ऐप्स का असर अपराध रोकने में दिखाई नहीं दिया।
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तकनीकी दिक्कतों से परेशान यूज़र
विशेषज्ञों की राय
साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि सिर्फ ऐप बना देने से समस्या हल नहीं होगी। रियल टाइम रिस्पॉन्स और पुलिस की जवाबदेही ज़्यादा ज़रूरी है। वहीं सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि महिलाओं की सुरक्षा ऐप्स तब तक सफल नहीं होंगे, जब तक स्ट्रीट लाइटिंग, सीसीटीवी कैमरे और समुदाय की जागरूकता नहीं बढ़ेगी।
वहीं महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि महिलाओं की सुरक्षा केवल डिजिटल माध्यमों से संभव नहीं है। उनके अनुसार, “सड़क लाइटिंग, सीसीटीवी कैमरे, सुरक्षित पब्लिक ट्रांसपोर्ट और सामुदायिक जागरूकता उतनी ही ज़रूरी है जितनी तकनीकी पहल।”
क्या है ग्राउंड हकीकत ?
ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी गंभीर है। अधिकतर महिलाओं के पास स्मार्टफोन नहीं है और जिनके पास है, वे तकनीकी जानकारी के अभाव में ऐप का उपयोग ही नहीं कर पातीं। ऐसे में ऐप का दायरा केवल शहरी पढ़ी-लिखी महिलाओं तक ही सिमटकर रह गया है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि महिला सुरक्षा ऐप्स की कहानी यही कहती है कि ये पहल कागज़ और प्रेस कॉन्फ्रेंस में ज़्यादा सफल नजर आती है, ज़मीनी स्तर पर नहीं। जब तक इन ऐप्स को मजबूत पुलिसिंग, बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक बदलाव के साथ नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ़ डिजिटल दावों तक ही सीमित रहेगी।