सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश बना पुलिस के लिए सिर दर्द, हजारों कैदी उठा सकते हैं गलत फायदा, जानें पूरा मामला

सुप्रीम कोर्ट ने जमानत प्रक्रिया को आसान और पारदर्शी बनाने के लिए सॉफ्ट कॉपी से रिहाई की व्यवस्था लागू की है। अब कोर्ट के आदेश की डिजिटल प्रति ई-मेल के जरिए जेल पहुंचती है और कैदी को जल्द रिहाई मिलती है। हालांकि, फर्जी दस्तावेजों से बचाव के लिए पुलिस और जेल प्रशासन को विशेष सॉफ्टवेयर और प्रशिक्षण दिया जा रहा है। कोर्ट ने कहा है कि सात दिन तक रिहाई न होने पर DLSA को सूचित किया जाए।

Post Published By: Mayank Tawer
Updated : 18 August 2025, 2:09 PM IST
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New Delhi: भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जमानत प्रक्रिया को तेज, पारदर्शी और डिजिटल बनाने के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अब अदालत के आदेश की सॉफ्ट कॉपी (डिजिटल प्रति) के जरिए ही विचाराधीन कैदी या दोषी को जेल से रिहा किया जा सकता है। यह निर्णय उन हजारों मामलों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है, जहां आरोपी को जमानत मिलने के बावजूद प्रक्रिया में देरी के कारण वे जेल में बंद रहते हैं।

क्या है सुप्रीम कोर्ट का नया आदेश?

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार कोर्ट द्वारा जमानत मंजूर होते ही उसी दिन या अगले दिन जमानत आदेश की सॉफ्ट कॉपी ई-मेल के जरिए जेल अधीक्षक को भेजी जाएगी। यह आदेश सीधे ई-जेल सॉफ्टवेयर में दर्ज किया जाएगा। इस प्रणाली का उद्देश्य कैदियों की शीघ्र रिहाई सुनिश्चित करना और प्रक्रियागत अड़चनों को समाप्त करना है। विशेष रूप से उन मामलों में यह व्यवस्था उपयोगी होगी जहां कैदी जमानत की राशि या कागज़ी कार्यवाही पूरी नहीं कर पाते।

इस डिजिटल प्रक्रिया में क्या है चुनौती?

डिजिटल जमानत प्रक्रिया के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि सॉफ्ट कॉपी की प्रामाणिकता की जांच करना जरूरी हो जाता है। फर्जी या छेड़छाड़ किए गए आदेशों के माध्यम से गलत कैदियों को रिहा किए जाने का खतरा बना रहता है। पुलिस और जेल प्रशासन कैसे करते हैं सॉफ्ट कॉपी की जांच? सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या से निपटने के लिए कई समाधान सुझाए हैं।

यूनिक रेफरेंस नंबर और डिजिटल हस्ताक्षर

हर जमानत आदेश में एक यूनिक कोड या डिजिटल सिग्नेचर होता है। इसे कोर्ट की वेबसाइट या ई-जेल पोर्टल पर वेरिफाई किया जा सकता है।

सॉफ्टवेयर एक्सेस

पुलिस और जेल अधिकारियों को ई-जेल सॉफ्टवेयर तक सीधी पहुंच दी गई है। वे किसी भी आदेश की तत्काल वैधता जांच सकते हैं।

जमानत आदेश पर कार्रवाई न होने की स्थिति में प्रावधान

यदि 7 दिन के भीतर रिहाई नहीं होती तो जेल अधीक्षक को DLSA (जिला विधिक सेवा प्राधिकरण) को इसकी सूचना देनी होगी। इसके बाद पैरा-लीगल वॉलंटियर्स और वकील मिलकर स्थिति की जांच करते हैं।

टाइपिंग की चूक से मिली गलत जमानत

हाल ही में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में एक मामला सामने आया था जिसमें टाइपिंग की त्रुटि के कारण गलत व्यक्ति को जमानत मिल गई थी। यह मामला सामने आते ही डिजिटल सत्यापन प्रणाली को और मजबूत करने की आवश्यकता महसूस की गई। अब इस दिशा में पुलिस को नियमित प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि वे डिजिटल आदेशों की वैधता सही तरीके से जांच सकें।

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट का मकसद?

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता, गति और प्रौद्योगिकी के समुचित इस्तेमाल को बढ़ावा देता है। साथ ही यह सुनिश्चित करता है कि आर्थिक, सामाजिक या तकनीकी कारणों से कोई कैदी अपने अधिकार से वंचित न रहे। डिजिटल आदेशों की सुरक्षा प्रणाली को और मजबूत किया जा रहा है। फर्जी जमानत आदेशों की पहचान के लिए पुलिस और जेल कर्मियों को नई तकनीकों का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। साथ ही ई-जेल और ई-कोर्ट इंटीग्रेशन को और प्रभावी बनाया जा रहा है।

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