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32 साल पुराने मनी ऑर्डर धोखाधड़ी मामले में सेवानिवृत्त उपडाकपाल महेंद्र कुमार को तीन साल की सजा सुनाई है। अदालत ने कहा कि गबन की गई रकम लौटाने से अपराध समाप्त नहीं होता। फैसले ने न्यायिक व्यवस्था और जवाबदेही दोनों को मजबूत संदेश दिया है।
प्रतीकात्मक फोटो (सोर्स: इंटरनेट)
Noida: गौतमबुद्ध नगर जिले की नोएडा अदालत ने 32 साल पुराने मनी ऑर्डर धोखाधड़ी के मामले में एक सेवानिवृत्त उपडाकपाल को दोषी ठहराते हुए तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई है। अदालत ने आरोपी पर ₹10,000 का जुर्माना भी लगाया है। यदि वह जुर्माना नहीं चुकाता है, तो उसे एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा। यह फैसला 31 अक्टूबर को अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (ACJM-1) मयंक त्रिपाठी की अदालत ने सुनाया।
अदालत ने हापुड़ जिले के पिलखुवा निवासी महेंद्र कुमार को भारतीय दंड संहिता की धारा 409 (लोक सेवक द्वारा आपराधिक विश्वासघात) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत दोषी पाया। अदालत ने कहा कि लोक सेवक होने के बावजूद महेंद्र कुमार ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए जनता का भरोसा तोड़ा। सरकारी पद पर रहते हुए इस तरह का अपराध अत्यंत गंभीर माना गया।
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अभियोजन पक्ष के अनुसार, यह मामला 12 अक्टूबर 1993 का है। नोएडा के सेक्टर 15 निवासी अरुण मिस्त्री ने अपने पिता मदन महतो (समस्तीपुर, बिहार) को ₹1,500 का मनी ऑर्डर भेजा था। उस समय आरोपी महेंद्र कुमार, नोएडा सेक्टर 19 स्थित डाकघर में उपडाकपाल के पद पर कार्यरत थे।
अदालत में पेश सबूतों के अनुसार, महेंद्र कुमार ने मनी ऑर्डर की राशि स्वीकार करने के बाद फर्जी रसीद जारी की। अरुण मिस्त्री को विश्वास था कि उनका मनी ऑर्डर भेज दिया गया है, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके पिता को पैसे नहीं मिले, तो उन्हें धोखाधड़ी की आशंका हुई। उन्होंने 3 जनवरी 1994 को डाकघर अधीक्षक सुरेश चंद्र के पास शिकायत दर्ज कराई।
शिकायत के बाद डाक विभाग ने आंतरिक जांच शुरू की। जांच में पाया गया कि ₹1,575 की राशि सरकारी खाते में जमा नहीं की गई थी। इसके अलावा, जिस रसीद को महेंद्र कुमार ने जारी किया था, वह भी जाली पाई गई। यह खुलासा होने के बाद अधीक्षक सुरेश चंद्र ने सेक्टर 20 पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई।
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अदालत ने अपने फैसले में कहा कि भले ही गबन की गई रकम बाद में लौटा दी जाए, परंतु इससे अपराध समाप्त नहीं हो जाता। अदालत ने इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के 1988 के निर्णय (राम शंकर पटनायक बनाम ओडिशा राज्य) का हवाला दिया। फैसले में लिखा गया कि एक बार जब आपराधिक विश्वासघात का अपराध सिद्ध हो जाता है, तो गबन की गई राशि या संपत्ति लौटाने से अपराध समाप्त नहीं होता। हाँ, यदि आरोपी राशि लौटा देता है, तो सजा में रियायत दी जा सकती है, लेकिन अपराध खत्म नहीं माना जाएगा।
इस मामले में जांच और सुनवाई में लंबा समय लगा। गवाहों के बयान, विभागीय रिकार्ड की जांच और दस्तावेजों के सत्यापन में वर्षों बीत गए। महेंद्र कुमार इस बीच सेवानिवृत्त हो चुके थे। हालांकि, अदालत ने कहा कि सेवानिवृत्ति अपराध से मुक्ति का कारण नहीं बन सकती। 32 साल बाद आया यह फैसला एक उदाहरण बन गया है कि न्याय में देरी हो सकती है, लेकिन न्याय से बचा नहीं जा सकता।