कोरोना का विनाश: पलायन से मौत का साया अपना तांडव ना फैलाये, यही है प्रार्थना
पिछले रविवार को प्रधान सेवक के मन की बात सुनी, उनके मन की बात सुनकर मेरे मन में भी आशा की एक किरण फूटी। कोरोना वायरस से विश्व के मानचित्र पर घटित हो रही विनाशलीला, मानवता पर उसका प्रभाव, योजनाओं के साथ सरकारी तैयारियां और धरातलीय हकीकत सभी कुछ मेरे मानस पटल पर धीरे-धीरे कोंधने लगी, मैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो गई।
नई दिल्ली: भारत में कोरोना वायरस से लड़ने के लिए समस्त देशवासियों ने 21 दिन के बंद को सफल बनाने का बीड़ा उठा रखा है। केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक पैकेजों की घोषणा, धार्मिक संस्थाओं द्वारा सहयोग एवं मानवीय सेवाओं का दौर भी आरंभ हो चुका है। उद्योगपतियों, सिने-कलाकारों, खिलाड़ियों, केंद्र एवं राज्य सरकारों के कर्मचारियों ने अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री राहत कोष में आर्थिक योगदान की सहायता का संकल्प भी ले लिया गया है। स्वयंसेवी संस्थाएं एवं समाज-सेवक भी व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से मदद के लिए लगातार आगे आ रहे हैं।
विश्व स्तर पर टेलीविज़न की सुर्खियों में देखा गया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने दिल्ली एवं विभिन्न राज्यों के प्रवासी गरीब श्रमिकों एवं मजदूरों के मसीहा बनकर बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करके उन्हें कैसे आश्वस्त किया। आपदा की इस घड़ी में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी लुटियन जोन में गरीबों को भोजन के दस पैकेट बांटे। शरद पवार, सुप्रिया सुले का शतरंज खेलकर प्रधान सेवक के अनुरोध का पालन करना भी हम सबने देखा। संजय राऊत का हारमोनियम बजाकर महाराष्ट्र के पीड़ितों को शकुन पहुंचाने का प्रयास संवेदनशीलता और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक दिखा।
तभी पिछले माह के अंतिम शुक्रवार को मौसम ने करवट बदली। आकाश में बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट मानों किसी अनहोनी का संकेत दे रही थी। एक ओर झमाझम बारिश, दूसरी ओर भूखमरी के कारण अपने-अपने गांवों की ओर लौट जाने को उतावले लाचार तथा बेबस अप्रवासी श्रमिकों एवं मजदूरों का औरतों तथा बच्चों के साथ कूच करता रेला। बरसात में भीगते भूखे-प्यासे अबोध बच्चे, बीमार बुजुर्ग, औरतों एवं पुरुषों को दिल्ली से उत्तर-प्रदेश सीमा की ओर हजारों की संख्या में पलायन करते देखकर आत्मा चीत्कार उठी। सिलसिला केवल पलायन तक ही नहीं रुका, सैकड़ों/हजारों किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करने की विवशता के चलते, कुछ सड़कों पर वाहनों द्वारा कुचल दिये गए और कुछ ने शरीर तथा भूख से निढाल होकर सड़कों पर दम तोड़ दिया।
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इतनी बड़ी तादाद में गरीब-मजदूरों का इकठ्ठा होना, किसी सुनियोजित षडयंत्र का हिस्सा था अथवा मात्र संयोग? इसकी वास्तविकता की जांच तथा विश्लेषण पाठकों पर छोड़ती हूँ। टेलीविज़न पर दिखाये गये इन दृश्यों को देखकर स्वीकार करना होगा कि प्रधान सेवक के 21 दिन तक घर पर ही रहने के आह्वान एवं सामाजिक दूरी के संकल्प की धज्जियां कुछ ही घंटों में उड़ा दी गईं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शासन तथा शासन तंत्र को चलाने वाले इन गरीबों, मेहनतकशों में विश्वास पैदा करने में असफल रहे।
सवाल यह है कि लाखों के लिए बनाया गया भोजन किसने खाया होगा या कौन खाएगा? निर्दोषों की मौत का जिम्मेदार कौन होगा? गरीब, लाचार मजदूरों/श्रमिकों तथा उनके परिवार की दुर्दशा के लिए जबाबदेही किसकी होगी? मानवीय लाचारी और बेबसी का दिल दहला देने वाला यही दृश्य 28 और 29 मार्च को भी दिखाई दिया। जब प्रशासन की तंद्रा टूटी, इक्का-दुक्का बड़े बाबू निलंबित हुये तथा कुछ को कारण बताओ नोटिस भी जारी हुए लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। किसी बेबस-मजबूर के दिल का दर्द कुछ ऐसे निकला होगा ‘बहुत देर से दर पे आँखें लगी थी, हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी, मसीहा मेरे तूने बीमार दिल की दवा लाते-लाते, बहुत देर कर दी’ पलायन से मौत का साया अपना तांडव ना फैलाये, अब तो बस यही प्रार्थना है।
आशा की किरण आज मन की बात सुनकर फिर से जागी है। इन लाखों मजदूरों के पलायन से अर्थ-व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका आंकलन भविष्य के गर्त में है। वर्तमान की आवश्यकता तो मानव एवं मानवता को बचाना है। पलायन की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद जिला मजिस्ट्रेट एवं पुलिस अधीक्षकों की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी पलायन को रोकने और 21 दिन के बंद को सफल बनाने हेतु सरकार द्वारा तय की गई है। आज कोरोना वायरस से बचने के लिए घर पर घरवालों के साथ सुरक्षित एवं स्वस्थ रहते हुए सरकार पर भरोसा करने का समय है।
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(लेखिका प्रो. सरोज व्यास वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, कापसहेड़ा, नई दिल्ली में डायरेक्टर हैं। ये शिक्षिका, कवियत्री और लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका के रूप में भी अपनी पहचान रखती है तथा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की इंचार्ज भी हैं)