सीबीआई को पिंजरे में कैद तोता समझने की भूल कर बैठी सरकार
देश की सर्वोच्च जांच संस्था सीबीआई को लेकर मचे घमासान को लेकर अब सभी की नजरें देश की सर्वोच्च अदालत पर टिकी हुई है। सरकार यदि समय पर जाग गई होती तो निश्चित ही यह तूफान खड़ा नहीं होता। सीबीआई अफसरों के बीच की जंग को समझने में सरकार ने जो देरी की, कुछ हद तक यह घमासान उसका भी परिणाम है। एक्सक्लूसिव रिपोर्ट..
नई दिल्ली: देश की सर्वोच्च जांच संस्था सीबीआई के चरित्र पर इतिहास में पहली बार कोई दाग लगा है। ऐसा भी पहली बार हो रहा है, जब देश में कई आपराधिक मामलों की जांच करने वाली इस विश्वसनीय एंजेसी की ही जांच की जा रही हो। विश्वसनीयता के संकट से घिरी सीबीआई को लेकर राजनीतिक गलियारों से लेकर पॉवर कोरिडोर में कई ऐसे सवाल उछल रहे हैं, जिनका जबाव फिलहाल भविष्य के गर्त में है। सरकार से लेकर विपक्ष समेत हर कोई एक-दूसरे के खिलाफ सीबीआई की ‘तोप’ ताने खड़ा है। सीबीआई मामले को लेकर ब्यूरोक्रेसी भी दो पांटों में बंटती दिखती है, जिसकी नाटकीय शुरूआत कमोबेश सीबीआई के अंदर से ही शुरू हुई और वहां सीबीआई के दो टॉप अफसरों आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के दो खेमे बन गये। सरकार ने भले इस संस्था पर छाये संकट को तत्काल खत्म करने और अपनी साख बचाने के लिये ‘पैन किलर’ का इस्तेमाल करते हुए इन दोनों टॉप अफसरों को रातों-रात छुट्टी पर भेजकर आईपीएस अधिकारी एम नागेश्वर राव को अंतरिम चीफ बना दिया हो, लेकिन घटनाक्रम पर नजर रखने वाले विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार के इस कदम के कई तरह के ‘रिएक्शन’ आने वाले दिनों में देखने को मिल सकते हैं।
छुट्टी पर भेजे गये सीबीआई के दो टॉप बॉसों समेत संस्था की साख पर उठे सवालों के लिये काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है। क्योंकि सीबीआई के अंदर पनप रहे इस विवाद की जानकारी सरकार को तब भी थी, जब दो माह पहले इस संस्था के अंदर ही इस विवाद के बीज बोये जा रहे थे और दोनों अफसरों ने एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलना शुरू कर दिया था। लेकिन सरकार तब लापरवाह बनी रही और मामले की अनदेखी करती रही। जब यह विवाद विस्फोटक स्थिति में पहुंचा तो सरकार ने आनन-फानन में डैमेज कंट्रोल करते हुए दो अफसरान को छुट्टी पर भेज दिया और कई अफसरों के तबादले कर दिये। कुछ के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज की गयी। सरकार ने अपने पाले से दूर जाती गेंद पर पॉवर स्ट्रोक खेलने की कोशिश की लेकिन टाइमिंग और तारतम्यता को मैंटेन नहीं कर सकी। इसी एक बड़ी कमी को लेकर सरकार पर सवाल उठाने के मौके विपक्ष को भी मिल गये।
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सीबीआई जैसी विश्वसनीय और उच्च संस्था के अंदर इस विवाद की नींव 24 अगस्त को उस समय ही पड़ गयी थी, जब नंबर दो अधिकारी अस्थाना ने अपने बॉस और सीबीआई चीफ वर्मा (फिलहाल छुट्टी पर) के खिलाफ एक सनसनीखेज शिकायत दर्ज कराई थी। इस शिकायत में अस्थाना ने वर्मा के खिलाफ 10 और मामलों में भ्रष्टाचार एवं अनियमितता के आरोप लगाए थे। जिसमें राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के परिसरों में छापेमारी को रोकने का आरोप भी वर्मा पर लगाया गया था। यही से इन दो अफसरान की जंग शुरू हुई, जो शुरूआती दौर में आपसी सी दिखी, लेकिन अब इसमें लोकतंत्र का हर स्तंभ शामिल हो गया है।
नबंर दो अफसर की सनसनीखेज शिकायत पर नंबर वन अफसर न तिलमिलाये, ऐसा अक्सर देखने को नहीं मिलता है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। एक नाटकीय लेकिन अपनी तरह के पहले मामले में 15 अक्टूबर को अस्थाना के खिलाफ सीबीआई ने रिपोर्ट दर्ज की। सीबीआई द्वारा सीबीआई में कार्यरत किसी बड़े अफसर के खिलाफ देश के इतिहास में पहली बार प्राथमिकी दर्ज की गयी। सीबीआई की इस रिपोर्ट में अस्थाना पर एक आरोपी को क्लीन चिट देने के ऐवज में बड़ी रिश्वत का आरोप लगा और यह रिपोर्ट कथित रिश्वत देने वाले सतीश सना के बयान पर दर्ज की गयी। इस रिश्वत में मांस कारोबारी मोइन कुरैशी की कथित संलिप्तता भी कथित तौर पर सामने आयी। भ्रष्टाचार, रिश्वत, अंदरूनी लड़ाई, आरोप-प्रत्यारोप और रिपोर्टबाजी का यह नाटक सरकार के आंखों के सामने चलता रहा और सरकार मूकदर्शक बनकर यह सब देखती रही। सरकार को जब तक यह खेल समझ में आता, तब तक काफी देर हो चुकी थी और सीबीआई की विश्वसनीयता को संकट के बादल घेर चुके चुके थे।
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आज सरकार और ब्यूरोक्रेसी के अलावा न्यायपालिक से लेकर देश का आम आदमी भी सीबीआई के इस विवाद पर नजरें जमाये हुए है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सीवीसी को जांच के आदेश देते हुए दो हफ्तों में रिपोर्ट तलब की है। दिवाली तक इस मामले पर खूब सियासी पटाखे फूटते रहेंगे। संस्था की साख पर उठे सवाल और तीखे हो सकतें है, जिसके लिये जितने दोषी सीबीआई के कुछ अफसर हैं, उससे कई ज्यादा दोषी सरकार भी है, जो लगभग दो माह तक सीबीआई को पिंजरे में कैद तोते की तरह देखती और समझती रही।