चिता की राख में 94 क्यों लिखा जाता है? क्या है अंतिम संस्कार की इस परंपरा के पीछे छिपा रहस्य?

हिंदू अंतिम संस्कार में चिता की राख पर “94” लिखने की परंपरा क्यों निभाई जाती है? क्या यह आस्था है या अंधविश्वास? जानें इस अनोखी प्रक्रिया के धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यवहारिक कारणों के पीछे छिपा असली रहस्य।

Post Published By: Sapna Srivastava
Updated : 9 December 2025, 12:24 PM IST
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New Delhi: हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार से जुड़े कई रीति-रिवाज और परंपराएं सदियों से निभाई जाती रही हैं। इन परंपराओं में कुछ ऐसी हैं जिनका वैज्ञानिक आधार माना जाता है, जबकि कुछ को लोग आस्था और संस्कृति का हिस्सा मानकर निभाते हैं। इन्हीं में से एक है चिता की राख में “94” लिखने की परंपरा, जिसे लेकर लोगों के मन में कई तरह के सवाल उठते हैं। क्या यह सिर्फ एक धार्मिक मान्यता है या इसके पीछे कोई खास कारण छिपा है?

क्यों माने जाते हैं इतने महत्वपूर्ण?

हिंदू शास्त्रों में 16 संस्कारों का वर्णन मिलता है, जिनमें अंतिम संस्कार सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। मान्यता है कि सही विधि से किए गए संस्कार से मृतक की आत्मा की शांति होती है और परिवार पर आने वाली नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव कम होता है। इसी कारण हर छोटा-बड़ा नियम पीढ़ियों से निभाया जाता रहा है। अंतिम संस्कार के दौरान अग्नि, जल, मंत्र और विशिष्ट प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है। श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण जैसे नियम भी इसी परंपरा का हिस्सा हैं।

राख में ‘94’ लिखने का रहस्य क्या है?

यह परंपरा उत्तर भारत के कई राज्यों में देखी जाती है। चिता की राख में 94 अंक लिखने को लेकर दो प्रमुख मान्यताएं प्रचलित हैं:

1. प्रतीकात्मक रूप से संसार से मुक्ति का संकेत

कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ‘9’ और ‘4’ अंक जीवन के दो मूल तत्वों को दर्शाते हैं।

9 — पूर्णता, चक्र का अंत और मोक्ष का संकेत

4 — सृष्टि के चार पहलू (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)

इन दोनों अंकों को मिलाकर यह दर्शाया जाता है कि आत्मा ने अपने भौतिक चक्र को पूरा कर लिया है और मुक्ति की ओर अग्रसर है।

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2. पहचान और सुरक्षा का पारंपरिक कारण

पुराने समय में एक ही घाट पर कई अंतिम संस्कार होते थे। इससे पहचान की समस्या होती थी कि कौन-सी राख किस परिवार की है। माना जाता है कि “94” लिखने की शुरुआत एक पहचान चिह्न के रूप में हुई, ताकि परिवार अपनी चिता की राख एवं अस्थियों को आसानी से पहचान सके।
धीरे-धीरे यह एक परंपरा बन गई।

आस्था या अंधविश्वास?

विद्वानों का मानना है कि यह परंपरा समय के साथ धार्मिक महत्व से जुड़ गई, लेकिन इसका मूल उद्देश्य व्यवहारिक था। कुछ लोग इसे शुभ मानते हैं, जबकि कुछ इसे अनावश्यक मानते हैं। लेकिन अधिकांश परिवार इसे आस्था के रूप में निभाते हैं, क्योंकि अंतिम संस्कार से जुड़े नियमों में भावनात्मक और सांस्कृतिक जुड़ाव बहुत गहरा होता है।

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लोगों की बदलती सोच

नई पीढ़ी अब इन परंपराओं पर सवाल भी उठाती है, लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि यदि कोई परंपरा किसी को मानसिक शांति देती है या अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को व्यवस्थित बनाती है, तो उसे निभाने में कोई बुराई नहीं।

Disclaimer: यहां दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है। किसी भी उपाय को अपनाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ या विद्वान से सलाह अवश्य लें।

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  • New Delhi

Published : 
  • 9 December 2025, 12:24 PM IST