

जब बात वायु प्रदूषण की आती है, तो पहली नजर में “पुरानी गाड़ियाँ” सबसे आसान विलेन दिखती हैं। लेकिन क्या हर पुरानी गाड़ी वाकई प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है? यही बुनियादी सवाल लेकर दिल्ली सरकार अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। यह एक तकनीकी, पर्यावरणीय और सामाजिक बहस की शुरुआत हो सकती है, जिसका असर पूरे देश की ट्रांसपोर्ट नीति पर पड़ सकता है।
दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में उठाया अहम सवाल (सोर्स इंटरनेट)
New Delhi: जब बात वायु प्रदूषण की आती है, तो पहली नजर में "पुरानी गाड़ियाँ" सबसे आसान विलेन दिखती हैं। लेकिन क्या हर पुरानी गाड़ी वाकई प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है? यही बुनियादी सवाल लेकर दिल्ली सरकार अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। यह एक तकनीकी, पर्यावरणीय और सामाजिक बहस की शुरुआत हो सकती है, जिसका असर पूरे देश की ट्रांसपोर्ट नीति पर पड़ सकता है।
राजधानी की सरकार ने 29 अक्टूबर 2018 के उस सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चुनौती दी है जिसमें 10 साल से ज्यादा पुरानी डीजल और 15 साल से ज्यादा पुरानी पेट्रोल गाड़ियों के संचालन पर पूर्ण प्रतिबंध की बात कही गई थी। यह आदेश नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के 2014 के फैसले को आधार बनाकर दिया गया था।
दिल्ली सरकार का कहना है कि यह नीति गाड़ियों की "उम्र" पर आधारित है, न कि उनकी "उत्सर्जन क्षमता" पर, और यही इसकी सबसे बड़ी खामी है। सरकार का तर्क है कि एक 12 साल पुरानी डीजल गाड़ी जिसकी सर्विसिंग नियमित हुई हो और जो आज भी फिटनेस टेस्ट में पास हो सकती है, उसे सड़क से हटाना एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी को दर्शाता है।
सरकार का कहना है कि तकनीकी रूप से किसी वाहन की फिटनेस का मूल्यांकन उसकी "एमिशन रेटिंग" और मैकेनिकल स्थिति से किया जाना चाहिए, न कि सिर्फ मॉडल के साल से। जैसे मोबाइल फोन या लैपटॉप की उम्र उनके परफॉर्मेंस का सीधा संकेत नहीं होती, वैसे ही हर पुरानी गाड़ी भी जरूरी नहीं कि पर्यावरण के लिए खतरनाक हो।
दिल्ली सरकार ने यह सुझाव दिया है कि एक विज्ञान आधारित, उत्सर्जन-केंद्रित फिटनेस पॉलिसी लाई जाए जिसमें हर गाड़ी को उसकी असली स्थिति के आधार पर आंका जाए, बजाय इसके कि उसकी उम्र के आधार पर 'फिट' या 'अनफिट' घोषित किया जाए। सरकार चाहती है कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग और केंद्र सरकार एक संयुक्त अध्ययन कर यह तय करें कि कौन सी नीति ज्यादा प्रभावी और व्यवहारिक है।
यह बहस सिर्फ नीति तक सीमित नहीं है। इसके सामाजिक असर भी हैं। कई मध्यम वर्गीय परिवार आज भी 12-15 साल पुरानी गाड़ियों पर निर्भर हैं, जिन्हें हटाना उनके लिए आर्थिक बोझ बन सकता है। दूसरी तरफ, पर्यावरण संरक्षण की जरूरत भी कम नहीं है। ऐसे में सवाल यह है: क्या कोई ऐसी नीति संभव है जो दोनों का संतुलन बना सके?
यह मामला अब 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस भूषण आर. गवई की अध्यक्षता वाली बेंच के सामने पेश होगा। अगर कोर्ट दिल्ली सरकार की दलीलों को तवज्जो देती है, तो देशभर में गाड़ियों की फिटनेस और रजिस्ट्रेशन को लेकर एक नई बहस और दिशा तय हो सकती है।
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