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सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वत श्रृंखला की परिभाषा और खनन गतिविधियों पर 29 दिसंबर 2025 को सुनवाई का फैसला किया है। यह सुनवाई पर्यावरण प्रेमियों के लिए अहम है, क्योंकि अरावली के संरक्षण और खनन विवाद पर निर्णय लिया जाएगा। यदि 100 मीटर की परिभाषा स्वीकार की जाती है, तो अरावली की बड़ी हिस्से को खनन और निर्माण के लिए खोला जा सकता है, जो पर्यावरणीय संकट का कारण बनेगा।
अरावली की नई परिभाषा पर विवाद
New Delhi: अरावली पर्वत श्रृंखला के अस्तित्व और वहां हो रहे खनन विवाद को लेकर सोमवार, 29 दिसंबर 2025 का दिन बेहद निर्णायक होने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की परिभाषा और खनन गतिविधियों पर स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई करने का फैसला लिया है। पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह एक उम्मीद की किरण है, क्योंकि हाल ही में 100 मीटर की नई परिभाषा को लेकर विवाद खड़ा हो गया था। अगर यह परिभाषा मानी जाती है, तो अरावली के बड़े हिस्से पर खनन और निर्माण गतिविधियों का खतरा बढ़ सकता है।
अरावली पर्वत श्रृंखला का अस्तित्व और उसके संरक्षण को लेकर उत्पन्न होने वाला विवाद पिछले कुछ समय से गहरा होता जा रहा है। इस विवाद की जड़ उस 'नई परिभाषा' में है, जिसे केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तावित किया था। केंद्र सरकार का कहना था कि केवल उन्हीं भू-आकृतियों को अरावली माना जाए जिनकी ऊंचाई स्थानीय धरातल से 100 मीटर या उससे अधिक है।
यह परिभाषा पर्यावरण विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं के लिए चिंता का विषय बन गई है। उनका कहना है कि अगर इसे स्वीकार कर लिया गया, तो अरावली की छोटी पहाड़ियां, रिज और निचले हिस्से संरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे। इसके परिणामस्वरूप, इन इलाकों में बेधड़क खनन और निर्माण कार्य शुरू हो सकता है, जिससे इस प्राचीन पर्वत श्रृंखला की जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा असर पड़ेगा।
इस विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए, पूर्व वन संरक्षण अधिकारी आर.पी. बलवान ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है। उन्होंने अदालत का ध्यान इस ओर खींचा है कि अरावली की परिभाषा केवल ऊंचाई के आधार पर नहीं, बल्कि इसके पूरे पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के आधार पर की जानी चाहिए। बलवान का कहना है कि अरावली न केवल एक भौगोलिक संरचना है, बल्कि यह पूरे उत्तर भारत के लिए एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने अरावली क्षेत्र में नई माइनिंग लीज पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया है, लेकिन वर्तमान खदानों को लेकर स्थिति अब भी अस्पष्ट है। इसके बावजूद, यह निर्णय कि अरावली का कितना हिस्सा 'प्रोटेक्टेड' रहेगा, भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा।
अरावली मामला: क्या है विवाद और क्यों बना सोशल मीडिया का मुद्दा? जानें सबकुछ
अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं है, बल्कि यह उत्तर भारत के लिए जीवनदायिनी भूमिका निभाता है। यह थार मरुस्थल को दिल्ली और हरियाणा की ओर बढ़ने से रोकता है और पूरे NCR और राजस्थान क्षेत्र के लिए भूजल स्तर बनाए रखने का प्रमुख स्रोत है। अरावली की हरी-भरी पहाड़ियों में बसी जैव विविधता क्षेत्रीय जलवायु और पारिस्थितिकी को स्थिर बनाए रखने में मदद करती है।
इसके अलावा, अरावली क्षेत्र दिल्ली-एनसीआर की हवा को साफ करने में भी महत्वपूर्ण योगदान करता है। इसे 'ग्रीन लंग्स' के रूप में देखा जाता है, जो दिल्ली की वायु गुणवत्ता को नियंत्रित करने में सहायक है। इस पहाड़ी क्षेत्र का अतिक्रमण और विनाश न केवल पर्यावरणीय संकट पैदा करेगा, बल्कि दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों में गंभीर जलवायु संकट भी उत्पन्न कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की 29 दिसंबर 2025 की सुनवाई का यह मामला देशभर के पर्यावरण प्रेमियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यदि कोर्ट ने अरावली की परिभाषा और इसके संरक्षण पर कोई निर्णायक कदम उठाया, तो यह न केवल खनन गतिविधियों पर रोक लगाएगा, बल्कि पूरी व्यवस्था को स्थिर बनाए रखने में मदद करेगा।
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सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर जारी कार्यसूची के अनुसार, इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्यकांत की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच करेगी। इस बेंच में जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस ए.जी. मसीह भी शामिल होंगे। इस मामले का शीर्षक 'In Re: Definition of Aravalli Hills and Ranges and Ancillary Issues' रखा गया है, जो कि इस मुद्दे की गंभीरता और व्यापकता को दर्शाता है।