Opinion: पलायन करते मजदूर अपनी पीड़ा कहें तो कहें किससे?

स्तब्ध हूँ, नि:शब्द हूँ, किन्तु अन्तर्मन की पीड़ा के ज्वार को रोकने में असमर्थ हूँ। 14 अप्रैल को लॉकडाउन बढ़ा, अपेक्षित था और अनिवार्य भी। लॉकडाउन बढ़ने की घोषणा के साथ ही शिक्षित सम्पन्न बुद्धिजीवी वर्ग चाय की चुस्कीयों के साथ, देश-दुनिया की वर्तमान स्थिति पर पैनी नज़र रखते हुये घर पर आगामी 19 दिनों की रूपरेखा बनाने में व्यस्त था। अचानक टेलीविज़न पर समाचार वाचकों के स्वर में तल्खी ने संभवतया सभी का ध्यान उस ओर केन्द्रित किया, यह क्या? हजारों की संख्या में प्रवासी श्रमिकों का हुजूम मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर एकत्रित देखा गया वैसे ही प्रवासी मजदूरों के हुजूम सूरत, अहमदाबाद और ठाणे आदि में भी देखे जाने की सूचनाएँ मिली|

Post Published By: डीएन ब्यूरो
Updated : 16 April 2020, 11:41 AM IST
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नई दिल्ली: मीडिया के अनुसार श्रमिकों को दोनों समय भोजन नहीं मिल रहा हैं, नियोजकों द्वारा पैसों का भुगतान नहीं हो रहा है तथा एक ही कमरे में 10-12 लोग और इससे अधिक रहने को बाध्य हैं। सरकार द्वारा अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं की जा रही है| ऐसी अफवाह उड़ाई गई कि उन्हें उनके गृहराज्य (गाँवों/कस्बों) तक भेजने के लिए रेल यातायात का प्रबंध किया जा रहा है, इसलिए सब बांद्रा स्टेशन पहुँच गए| महाराष्ट्र के एक मंत्री ने इस अप्रत्याशित घटना के लिए केंद्र सरकार के सर पर ठीकरा फोड़ दिया| कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए गरीब, लाचार, असहाय और निर्दोष लोगों के साथ साम-दाम-दंड-भेद नीति अपनाने हुये पुलिस द्वारा बर्बर बल प्रयोग हुआ, मुक़दमे दर्ज हुये, गिरफ़्तारी हुई,  सरकारी घोषणाओं का आगाज़ हुआ परंतु सिसकियाँ दबी की दबी रह गयीं, जिससे आत्मा चीत्कार उठी।

देश में हजारों स्वयंसेवी संस्थाओं, इस्कॉन मंदिरों, गुरुद्वारों, सामुदायिक रसोइयों, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की संस्था ‘सेवा-भारती’ और असंख्य संवेदनशील भारतीय नागरिकों द्वारा रात-दिन भोजन और राशन की व्यवस्था की जा रही है | सामान्य व्यक्ति भी अपने सामर्थ्य से बढ़कर जरूरतमंद लोगों की सहायता कर रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये के आर्थिक सहयोग की घोषणा की गई है| राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों और उद्योगपतियों द्वारा भी आर्थिक राहत की घोषणा भी की गयीं हैं| इन सबके उपरांत प्रवासी श्रमिक दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं| ऐसे में उनकी घर जाने की हठधर्मिता पर अँगुली उठाना गलत होगा| घर-परिवार से दूर भूख से मरने की अपेक्षा कोरोना वायरस नामक अदृश्य शत्रु से परिवार के पास परिवार के साथ मरने की सोच उन्हें अधिक संतोष दे रही हैं|

अब यक्ष प्रश्न यह उठते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा जारी की गई राशि का उपयोग किसके द्वारा, किसके लिए और कहाँ पर किया जा रहा है? मीडिया सरकारों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं की सूचना और शासकीय असफलता के प्रमाण तो सजगता से सबूतों के साथ प्रस्तुत करने में अग्रणी भूमिका निभा रहा हैं लेकिन सहायता सामग्री/राशि का उपयोग जरूरतमंद लोगों के लिए हो रहा है, इसके क्रियान्वयन के धरातलीय दृश्यों को देशवासियों के समक्ष क्यों नहीं पहुँचा रहा है?

देश में कोरोना वायरस से कितने लोगों की मृत्यु हुई, कितने लोग स्वस्थ होकर घर सुरक्षित लौटे, कितने चिकित्सालयों में स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं, वेंटिलेटर पर कितने हैं और सरकार द्वारा स्थापित एकांतवासों एवं स्वगृह एकांत में कितने लोगों को निगरानी में रखा जा रहा हैं? इसकी प्रतिदिन की जानकारी सभी के पास में पहुँच रही है| आरोग्य सेतु ऐप की उपयोगिता की जानकारी मिल रही है| तबलीगियों के आँकड़े भी तत्परता से एकत्रित करने और उन्हें ढूंढ निकालने में मीडिया तथा सरकारें सफल रही हैं |

दुर्भाग्य बस इतना है कि अप्रवासी निराश्रित श्रमिक/मजदूरों को किसी साज़िश के तहत गुमराह करने/होने, हजारों की संख्या में बस अड्डों एवं रेलवे स्टेशनों पर एकत्रित करने/होने की तथा भूखे मरने की सूचना सरकारों और मीडिया कर्मियों को तब तक नहीं मिलती, जब तक उन पर लाठी-डंडे नहीं पड़ जाते हैं| मानवाधिकारों की संरक्षक संस्थाएं, मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले, श्रमिकों/मजदूरों के मसीहा कहे जाने वाले लोगों की चुप्पी पर आश्चर्य चकित हूँ| गत दो दशकों में अनेक बार देश में घटने वाली घटनाओं पर न्यायिक संस्थाओं द्वारा स्वत: संज्ञान लेते देखा है लेकिन शायद कोरोना वायरस के सामने स्वविवेक और स्वत: संज्ञान अप्रासंगिक हो गया है|

(लेखिका प्रो. सरोज व्यास, फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, कापसहेड़ा, नई दिल्ली में डायरेक्टर हैं। डॉ. व्यास संपादक, शिक्षिका, कवियत्री और लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका के रूप में भी अपनी पहचान रखती है। ये इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की इंचार्ज भी हैं)

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