

बिहार में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) अभियान ने एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दे दिया है। वजह? वोटर लिस्ट में कई मतदाताओं के पते पर “हाउस नंबर 0” लिखा होना। विपक्ष ने इसे आधार बनाकर सवाल उठाए हैं कि क्या यह किसी फर्जीवाड़े का संकेत है? क्या यह मतदाता सूची में भारी गड़बड़ी है?
वोटर लिस्ट (फोटो सोर्स गूगल)
New Delhi: बिहार में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) अभियान ने एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दे दिया है। वजह? वोटर लिस्ट में कई मतदाताओं के पते पर "हाउस नंबर 0" लिखा होना। विपक्ष ने इसे आधार बनाकर सवाल उठाए हैं कि क्या यह किसी फर्जीवाड़े का संकेत है? क्या यह मतदाता सूची में भारी गड़बड़ी है?
लेकिन जब इसी "हाउस नंबर 0" पर नजर दिल्ली में डालते हैं, तो यह किसी गड़बड़ी का नहीं, बल्कि समाज के सबसे हाशिये पर खड़े लोगों के लिए सम्मानजनक पहचान का प्रतीक बन जाता है।
दिल्ली वह पहला राज्य था, जिसने 2013 में बेघर लोगों को भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने का बीड़ा उठाया। सरकार और चुनाव आयोग ने यह तय किया कि अगर किसी के पास स्थायी घर नहीं है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह नागरिक अधिकारों से वंचित हो।
इसी के तहत बेघर नागरिकों को फॉर्म 6 भरना होता है, जिसमें वह यह प्रमाणित करते हैं कि वह किसी शेल्टर होम, फुटपाथ या अन्य अस्थायी स्थान पर रह रहे हैं। इसके बाद BLO (Booth Level Officer) जाकर उस पते का फिजिकल वेरिफिकेशन करता है, और योग्य पाए जाने पर व्यक्ति को वोटर लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है। ऐसे मामलों में जब किसी का स्थायी घर नहीं होता, तो हाउस नंबर ‘0’ दर्ज किया जाता है — जो तकनीकी रूप से यह बताता है कि व्यक्ति बेघर है, लेकिन पहचान के अधिकार से वंचित नहीं।
बढ़ते विवाद के बीच, 17 अगस्त को चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने साफ कहा कि यह आशंका पूरी तरह निराधार है कि जिनके एड्रेस में '0' लिखा है, वे फर्जी वोटर हो सकते हैं।
उन्होंने कहा, "देशभर में लाखों ऐसे नागरिक हैं जो स्थायी घर नहीं रखते। उन्हें वोटर लिस्ट से बाहर रखना असंवैधानिक होगा। ऐसे लोगों को लोकतंत्र में शामिल करने के लिए ‘हाउस नंबर 0’ एक तकनीकी समाधान है, न कि कोई त्रुटि।”
जहां बिहार में इसे सियासी हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, वहीं दिल्ली जैसे शहर में यह '0' एक उम्मीद की शुरुआत है। ये वह ‘शून्य’ है, जो गिनती में भले ही कुछ न हो, लेकिन संवैधानिक भागीदारी के मायने में अमूल्य है। इस बहस ने हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या किसी व्यक्ति की पहचान उसके पते से तय होनी चाहिए, या उसके नागरिक अधिकारों से?