

1857 की क्रांति का नायक राव उमराव सिंह न केवल योद्धा थे। बल्कि किसान, रणनीतिकार और नेतृत्वकर्ता भी थे। उन्होंने अंग्रेजों को न सिर्फ युद्ध के मैदान में चुनौती दी, बल्कि उनके सामने डटकर कहा- “दिल्ली दूर है!” यह कहानी आजादी के उन गुमनाम नायकों की है, जिनका इतिहास आज भी धूल में दबा है।
राव उमराव सिंह
Greater Noida: 1857 की पहली क्रांति का जिक्र होते ही लोगों की जुबां पर मेरठ, दिल्ली, झांसी, कानपुर और लखनऊ जैसे नाम आते हैं, लेकिन इन्हीं के बीच दादरी का नाम कहीं गुम हो गया। गौतमबुद्ध नगर (तत्कालीन बुलंदशहर) जिले के इस ऐतिहासिक कस्बे में हुई बगावत, किसानों और स्थानीय नेताओं का योगदान और अंग्रेजों से लड़ी गई जंग आज भी इतिहास की गहराइयों में दबा पड़ा है। लेकिन इस क्रांति में एक ऐसा भी किसान था, जिसने अंग्रेजों की आंखों में आंखें डालकर कहा था- "दिल्ली दूर है!"
दादरी से दिल्ली तक फैली बगावत की चिंगारी
मेरठ में 10 मई 1857 को विद्रोह की शुरुआत के ठीक बाद 12 मई को दादरी में भी आजादी का बिगुल बजा। बढ़पुरा गांव के सिपाही भगवान सहाय मेरठ से भागकर अपने गांव आए और राजा राव उमराव सिंह को मेरठ की घटनाओं से अवगत कराया। बस, फिर क्या था- राव उमराव सिंह, उनके भाई राव बिशन सिंह और चाचा राव रोशन सिंह ने गांव-गांव जाकर युवाओं और किसानों को इकट्ठा किया। रातोंरात बगावत की योजना बनी। हथियार जुटाए गए और 12 मई को दादरी से बगावत शुरू हो गई। इस बगावत में दादरी से सिकंदराबाद तक सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। अंग्रेज बौखलाए, उन्होंने 19 मई को सिकंदराबाद में 46 क्रांतिकारियों को पकड़ लिया, लेकिन राव उमराव सिंह फरार हो गए।
अंग्रेजों को रोकने के लिए बना मोर्चा
राव उमराव सिंह जानते थे कि अंग्रेज दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं। वह दिल्ली को दोबारा अंग्रेजों के हाथों में जाने से रोकना चाहते थे। उन्होंने आसपास के गांवों से क्रांतिकारियों को एकत्र किया और 21 मई को बुलंदशहर जेल पर धावा बोलकर अपने साथियों को छुड़ा लिया। इसके बाद वह सीधे दिल्ली की ओर रवाना हुए, जहां क्रांतिकारियों ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर को अपना सरपरस्त बना लिया था।
अंग्रेजों को मिट्टी चटाई
मेरठ से दिल्ली के लिए चला ब्रिगेडियर आर्कडेल विल्सन उसका सामना 30 और 31 मई को गाजियाबाद में हिंडन नदी के किनारे राव उमराव सिंह और उनके साथियों से हुआ। दो दिन तक चले इस घमासान युद्ध में अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान हुआ, कमांडर हेनरी बर्नार्ड मारा गया। लेकिन भारी सैन्य बल के चलते अंततः राव उमराव सिंह को पीछे हटना पड़ा।
गदर की दोबारा शुरुआत, फिर बलिदान
3 जून को तिल बेगमपुर में हुई महापंचायत में राव उमराव सिंह को फिर से गदर का नेता चुना गया। दादरी से दोबारा बगावत शुरू हुई, लेकिन इस बार अंग्रेज पहले से तैयार थे। 30 जून को कर्नल ग्रेथार्ड की अगुवाई में दादरी पर हमला हुआ, जहां भारी नरसंहार हुआ। उमराव सिंह अपने साथियों के साथ भूमिगत हो गए। वह झांसी, ग्वालियर और कानपुर की ओर चले गए। वहां उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तांत्या टोपे से मिलकर अगली रणनीति बनाई।
26 सितंबर 1857 को सजा-ए-मौत
लेकिन इस बीच अंग्रेजों ने उनके 84 साथियों और परिजनों को पकड़ लिया। कानपुर से लौटते वक्त उमराव सिंह भी गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें बुलंदशहर लाया गया और 26 सितंबर 1857 को काला आम चौराहे पर फांसी दे दी गई। उनके साथियों में झंडू नंबरदार, मंगनी सिंह, तहवर अली खान, मेदा सिंह, गौहर खान समेत कई नाम शामिल हैं। इससे पहले उनके चाचा राव रोशन सिंह और भाई राव बिशन सिंह को दिल्ली में हाथियों के पैरों तले कुचलवा दिया गया था।
‘दिल्ली दूर है’
जब अंग्रेजों ने गाजियाबाद में राव उमराव सिंह से पूछा कि वो उन्हें दिल्ली क्यों नहीं जाने देना चाहते? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “दिल्ली दूर है!” यह केवल शब्द नहीं थे- यह संकल्प था, साहस था और आज़ादी की एक चेतना थी। भले ही वो दिल्ली को बचा नहीं पाए, लेकिन उन्होंने वह बीज बो दिया, जो आने वाले स्वतंत्रता संग्रामों की नींव बना।