हिंदी
शुभम ने वैध मेडिकल कारोबार का मुखौटा पहनकर कोडीन सिरप की तस्करी का नेटवर्क खड़ा किया। फर्जी फर्में, नकली लाइसेंस और कागजी बिल सब कुछ बारीकी से तैयार किया गया। STF की जांच ने पहली बार इस संगठित ड्रग सिंडिकेट की जड़ों को उजागर किया है।
शुभम ने सिरप तस्करी का नेटवर्क खड़ा किया (फोटो सोर्स- डाइनामाइट न्यूज़)
Lucknow: लखनऊ की ठंड भरी सुबह… 2 दिसंबर, घड़ी में 10:45 बज रहे थे। सुशांत गोल्फ सिटी के पास प्लासियो मॉल का पूर्व-उत्तरी तिराहा हमेशा की तरह व्यस्त था, लेकिन उस दिन वहां मौजूद STF की टीम उसी भीड़ में कुछ खास तलाश रही थी। कुछ ही मिनटों में एक युवक को दबोचा गया- नाम था आलोक प्रताप सिंह, वही शख्स जिसका नाम पिछले महीनों से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल तक फैल चुके कोडीन-युक्त कफ सिरप रैकेट में प्रमुख भूमिका निभाने के तौर पर सामने आ रहा था।
यह गिरफ्तारी किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक बेहद संगठित, बहु-राज्यीय सिंडिकेट पर बड़ी चोट थी। और इस सिंडिकेट की डोरें जिस हाथ में बंधी थीं, वह नाम था- शुभम जायसवाल, रांची और बनारस में फैले कथित मेडिकल कारोबार का मालिक, और अब STF के मुताबिक इस रैकेट का "ऑपरेशनल मास्टरमाइंड"।
आलोक की गिरफ्तारी के बाद पूछताछ में जो खुलासे हुए, उन्होंने पूरे नेटवर्क की जड़ें खोलकर रख दीं। उसने बताया कि आज़मगढ़ के विकास सिंह ने उसकी मुलाकात शुभम से कराई थी। शुभम खुद को एबॉट जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों के बड़े डिस्ट्रीब्यूटर के तौर पर पेश करता था। इस दिखावे का उद्देश्य साफ था- विश्वसनीयता का भ्रम पैदा करना।
Cough Syrup: तमिलनाडु में एक फार्मा कंपनी पर गिरी ED की गाज, 300 से ज्यादा नियमों का उल्लंघन
शुभम ने बताया था कि झारखंड के रांची में "शैली ट्रेडर्स" नाम से उसका भारी-भरकम मेडिकल कारोबार चलता है। लेकिन इसकी आड़ में, कोडीन युक्त फेन्सेडिल का कथित अवैध व्यापार बंगाल और बांग्लादेश तक पहुंचाया जाता था, जहां इसकी भारी मांग और तगड़ी कीमत थी।
यहीं से इस कारोबार का असली 'गेम' शुरू हुआ।
फर्जी फर्में, फर्जी दस्तावेज और असली करोड़ों का धंधा
पूछताछ में आलोक सिंह ने बताया कि शुभम और उसके साथी वरुण सिंह, गौरव जायसवाल और विशाल मेहरोत्रा ने जनवरी 2024 में उसके नाम पर धनबाद में "श्रेयसी मेडिकल एजेंसी" खुलवाई। दावा किया गया कि फर्म पूरी तरह वैध है, लेकिन STF जांच में सामने आया कि- ड्रग लाइसेंस, अनुभव प्रमाण-पत्र, शपथ-पत्र सब कुछ फर्जी दस्तावेजों के आधार पर लिया गया था। आलोक ने खुद स्वीकार किया- "मैंने कभी किसी मेडिकल स्टोर में काम तक नहीं किया है।"
इसके बाद दूसरा जाल बिछाया गया-बनारस में "मां शारदा मेडिकल" नाम से एक और फर्म। दो-तीन महीनों तक इन फर्मों से "कागजी खरीद-फरोख्त" दिखाई गई, ताकि बड़े पैमाने पर हो रही तस्करी को वैध व्यापार का रूप दिया जा सके।
प्रतीकात्मक छवि (फोटो सोर्स- गूगल)
नकली बिल, ई-वे बिल और फर्जी स्टॉक ट्रांसफर के जरिए कोडीन सिरप ट्रकों से बिहार, बंगाल और झारखंड में भेजा जाता था, और फिर वही माल बांग्लादेश में ठिकानों तक पहुँचता था। यह सब इतनी सफाई से किया गया कि शुरुआती महीनों में किसी को शक तक नहीं हुआ।
मुनाफे का लालच और काले खेल में नए चेहरे
आलोक और अमित टाटा ने इस "कारोबार" में कुल 10 लाख रुपये निवेश किए थे, जिन पर उन्हें लगभग 20-22 लाख रुपये वापस दिए गए। इतना तेज मुनाफा देखकर कोई भी सोच सकता था कि यह सामान्य मेडिकल कारोबार नहीं है- यह कुछ और है। और यहीं से शुभम का असली मॉडल समझ में आता है-
लोगों को तेज कमाई का लालच दो... उनके नाम पर फर्म खोलो... कागज तैयार करो... ड्रग की खेप आगे बढ़ाओ... पैसा घुमाकर आगे निवेश कराओ।
पूरी फाइनैंशल मैनेजमेंट टीम तैयार थी- शुभम खुद, उसका साथी, और उसका CA तुषार। यही लोग खातों को मैनेज करते, लेजर बनाते, नकली बिल तैयार करते और पैसे को वैध दिखाने के लिए घूमाते थे, धनबाद और रांची में ऑपरेशन्स को संभाल रहा था वरुण सिंह। उत्तर प्रदेश और बिहार में सप्लाई चैन संभाल रहे थे गौरव और विशाल मेहरोत्रा। यह कोई ढीला-ढाला गैंग नहीं है यह एक संगठित, कॉर्पोरेट-जैसा ढांचा है।
गिरोह के कई सदस्य रांची और गाज़ियाबाद की पुलिस व STF की कार्रवाई में पकड़े गए। इनमें सौरभ त्यागी, विभोर राणा, अमित कुमार सिंह उर्फ टाटा जैसे नाम शामिल हैं। लेकिन जैसे-जैसे शिकंजा कसता गया, शुभम जायसवाल, वरुण सिंह, गौरव जायसवाल और शुभम का परिवार सभी कथित रूप से दुबई भाग गए। पैटर्न साफ है- जो लोग ऊपर थे, वे पहले ही बचाव का इंतजाम कर चुके थे।
कई महीनों से सवाल उठ रहे हैं कि किसने इन फर्मों को लाइसेंस दिया? किसने बिलों और ई-वे बिलों की जांच नहीं की? कौन थे वे अधिकारी जिन्होंने महीनों निरीक्षण रिपोर्ट अपडेट नहीं की?
यहां सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि व्यवस्था में छुपी एक साजिश की बू आती है। क्योंकि दवा लाइसेंस यूँ ही नहीं जारी होते- वे दिए भी जाते हैं, और दिलाए भी जाते हैं और इसी सिस्टम की खामियों ने कोडीन जैसे खतरनाक ड्रग को 'सिरप' बनाकर बाजार में मौत की तरह बेचने की छूट दे दी।
शुभम ने कभी हथियार नहीं उठाए। उसने न गिरोह चलाने का पुराना अपराध रिकॉर्ड दिखाया। उसने सिर्फ एक चीज इस्तेमाल की वो है मेडिकल बिजनेस का मुखौटा। कंपनियों से नजदीकियां दिखाना, सप्लाई चेन की समझ रखना, और तेजी से पैसे वापस करने का झांसा देना- यह तरीका इतना सुनियोजित था कि आम आदमी क्या, कई अनुभवी लोग तक धोखा खा गए। यही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी कि, वह डॉक्टर या मेडिकल प्रोफेशनल नहीं था, लेकिन सिस्टम की हर कमजोरी जानता था और इसी समझ के दम पर उसने कफ सिरप के इस काले कारोबार को करोड़ों की मशीन में बदल दिया।
STF ने अब तक 128 से अधिक FIR दर्ज की हैं। ड्रग इंस्पेक्टरों तक की जांच हो रही है। सिंडिकेट के कई राज अभी खुलने बाकी हैं। लेकिन यह साफ है कि शुभम जायसवाल ने कारोबार की आड़ में जो काला खेल शुरू किया, वह सिर्फ कुछ सिरप की बोतलों की कहानी नहीं, बल्कि व्यवस्था, राजनीति और सफेदपोश संरक्षण की मिली-जुली एक खतरनाक पटकथा है।