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एक बार सर्च करते ही वही विज्ञापन सोशल मीडिया पर दिखने लगते हैं। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि डेटा ट्रैकिंग का खेल है। आपकी सर्च हिस्ट्री और ऑनलाइन आदतें रिकॉर्ड की जाती हैं। यही डेटा अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स पर शेयर होता है।
विज्ञापनों के पीछे का मनोवैज्ञानिक खेल (फोटो सोर्स- डाइनामाइट न्यूज़)
New Delhi: क्या आपने कभी गौर किया है कि जैसे ही आप इंटरनेट पर किसी प्रोडक्ट, सेवा या जगह के बारे में सर्च करते हैं, उससे जुड़े विज्ञापन अचानक हर जगह दिखाई देने लगते हैं? आप Instagram चला रहे हों, Facebook स्क्रॉल कर रहे हों या फिर किसी न्यूज़ वेबसाइट पर हों, वही विज्ञापन बार-बार सामने आ जाते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे आपका मोबाइल या लैपटॉप आपकी बातें सुन रहा हो।
हालांकि, हकीकत इससे थोड़ी अलग और कहीं ज्यादा तकनीकी है। दरअसल, यह सब डिजिटल मार्केटिंग और डेटा ट्रैकिंग का कमाल है। आज के डिजिटल दौर में कंपनियां यूजर के व्यवहार को समझने और उसे खरीदारी के लिए प्रेरित करने के लिए बेहद एडवांस तकनीकों का इस्तेमाल कर रही हैं।
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सोशल मीडिया और वेबसाइट्स पर दिखने वाले विज्ञापन सिर्फ जानकारी देने के लिए नहीं होते, बल्कि ये आपके दिमाग पर असर डालने के लिए डिजाइन किए जाते हैं। जब आप किसी प्रोडक्ट को सर्च करते हैं, तो वह आपकी रुचि की लिस्ट में शामिल हो जाता है। इसके बाद कंपनियां उसी प्रोडक्ट से जुड़े रंगीन, आकर्षक और भावनात्मक विज्ञापन दिखाती हैं, ताकि आपके दिमाग में बार-बार यह ख्याल आए कि आपको इसकी जरूरत है।
मार्केटिंग एक्सपर्ट्स इसे 'रीमाइंडर इफेक्ट' कहते हैं। यानी आपको यह याद दिलाया जाता है कि आप कुछ खरीदना चाहते थे। बार-बार दिखने से धीरे-धीरे वह चीज आपको जरूरी लगने लगती है और अंततः आप खरीदारी कर लेते हैं।
जब भी आप Google या किसी अन्य सर्च इंजन पर कुछ खोजते हैं, तो आपकी गतिविधि को 'कुकीज' के जरिए रिकॉर्ड कर लिया जाता है। कुकीज़ छोटे डेटा फाइल्स होती हैं, जो आपके ब्राउजर में सेव हो जाती हैं। इनमें आपकी सर्च हिस्ट्री, देखे गए वेबपेज, पसंद-नापसंद और ऑनलाइन व्यवहार से जुड़ी जानकारी होती है।
प्रतीकात्मक छवि (फोटो सोर्स- इंटरनेट)
यही कुकीज़ विज्ञापन कंपनियों को बताती हैं कि आप किस तरह के प्रोडक्ट्स में दिलचस्पी रखते हैं। इसके बाद जब आप किसी दूसरी वेबसाइट या ऐप पर जाते हैं, तो वही कुकीज काम करती हैं और आपको उसी से जुड़े विज्ञापन दिखने लगते हैं।
आज के समय में Google, Meta (Facebook और Instagram), YouTube और कई मोबाइल ऐप्स एक ही बड़े डिजिटल विज्ञापन नेटवर्क का हिस्सा हैं। अक्सर यूजर्स का डेटा इन प्लेटफॉर्म्स के बीच साझा किया जाता है। इसका मतलब यह है कि आपने अगर Google पर कुछ सर्च किया है, तो उससे जुड़ा विज्ञापन आपको Instagram या Facebook पर भी दिख सकता है।
हालांकि कंपनियां दावा करती हैं कि यह डेटा 'अनॉनिमस' होता है, लेकिन फिर भी इससे यूज़र की पसंद और व्यवहार का काफी सटीक अंदाजा लगाया जा सकता है।
आज लगभग हर ऐप किसी न किसी तरह से दूसरी ऐप्स या सर्विसेज से जुड़ा होता है। ये ऐप्स सिर्फ यह नहीं देखते कि आप क्या पसंद करते हैं, बल्कि यह भी अनुमान लगाते हैं कि आप कितना खर्च कर सकते हैं, आपकी उम्र क्या है, आप कहां रहते हैं और आपकी खरीदारी की आदतें कैसी हैं। इसी डेटा के आधार पर आपको वही विज्ञापन दिखाए जाते हैं, जिनमें आपके रुचि लेने की संभावना ज्यादा होती है। इसे "टार्गेटेड एडवरटाइजिंग" कहा जाता है।
कई लोगों को लगता है कि फोन उनकी बातें सुन रहा है, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता। असल में आपका ऑनलाइन व्यवहार- सर्च, लाइक, शेयर और क्लिक- आपके बारे में काफी कुछ बता देता है। इसी जानकारी के आधार पर विज्ञापन दिखाए जाते हैं।
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अगर आप चाहते हैं कि विज्ञापन आपका पीछा न करें, तो ब्राउजर की कुकीज क्लियर करें, ऐड पर्सनलाइजेशन सेटिंग बंद करें और ऐप्स को गैर-जरूरी परमिशन न दें। इससे टार्गेटेड विज्ञापनों की संख्या काफी हद तक कम हो सकती है। कुल मिलाकर, इंटरनेट पर दिखने वाले विज्ञापन कोई संयोग नहीं, बल्कि आपके डेटा और डिजिटल व्यवहार का नतीजा हैं। अब जब अगली बार कोई विज्ञापन आपका पीछा करे, तो आप जान जाएंगे कि इसके पीछे कौन-सी तकनीक काम कर रही है।