Kanwar Yatra: क्यों कांवड़ को कंधे पर रखा जाता है? जानें इसके पीछे की कथा और धार्मिक वजह

सावन के पवित्र महीने की शुरुआत होते ही कावड़ यात्रा का महत्व और भी बढ़ जाता है। शिवभक्त इस समय पवित्र नदियों का जल कांवड़ में भरकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। इस यात्रा के दौरान कांवड़ को कंधे पर रखने के पीछे कई धार्मिक और पौराणिक कारण जुड़े हुए हैं, जिनकी जानकारी हम इस खबर में दे रहे हैं। यह यात्रा भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक मानी जाती है।

Post Published By: Sapna Srivastava
Updated : 17 July 2025, 9:27 AM IST
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New Delhi: हर साल सावन माह में कावड़ यात्रा का आयोजन भारतभर में बड़े धूमधाम से किया जाता है। इस समय लाखों शिवभक्त पवित्र गंगाजल लेकर उसे शिवलिंग पर अर्पित करने के लिए यात्रा करते हैं। कावड़ यात्रा का यह अद्भुत त्यौहार न केवल धार्मिक बल्कि मानसिक और शारीरिक तपस्या का प्रतीक है। खासकर इस यात्रा में कांवड़ को कंधे पर रखने की परंपरा को लेकर कई धार्मिक मान्यताएं और पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं।

कांवड़ को कंधे पर क्यों रखा जाता है?

कांवड़ यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कांवड़ को कंधे पर रखना। यह परंपरा विशेष रूप से श्रद्धा, समर्पण और तपस्या का प्रतीक मानी जाती है। कांवड़ यात्रा के दौरान शिवभक्त कांवड़ में गंगाजल भरकर उसे अपने कंधे पर रखकर शिवालय तक जाते हैं, जो कि शारीरिक रूप से कठिन यात्रा होती है। इस दौरान भक्त न केवल शारीरिक कष्टों को सहन करते हैं बल्कि यह भी महसूस करते हैं कि वे भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा को संजोए हुए हैं।

Kanwar Yatra in the holy month of Sawan (Source-Google)

सावन के पवित्र महीने में कावड़ यात्रा (सोर्स-गूगल)

इसके पीछे एक गहरी धार्मिक मान्यता है, जिसके अनुसार कांवड़ को कंधे पर रखकर चलने से व्यक्ति की मेहनत और समर्पण का आभास होता है। यह पूरी यात्रा शारीरिक और मानसिक तपस्या की तरह मानी जाती है।

कांवड़ यात्रा की पौराणिक कथा

कांवड़ यात्रा की शुरुआत से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं हैं। सबसे प्रमुख कथा भगवान परशुराम से जुड़ी हुई है, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। लेकिन इसके अलावा लंकापति रावण से भी कावड़ यात्रा का संबंध जोड़ा जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, रावण भगवान शिव का परम भक्त था। एक बार उसने कैलाश पर्वत को उठाने का प्रयास किया, जिससे भगवान शिव क्रोधित हो गए। हालांकि, रावण ने अपनी गलती को स्वीकारते हुए भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गंगाजल से अभिषेक करने का निर्णय लिया। रावण ने गंगाजल को कांवड़ में भरकर उसे अपने कंधे पर रखा और भगवान शिव के शिवलिंग पर अर्पित किया। रावण के इस प्रयास को देखकर शिवजी प्रसन्न हो गए और उनकी कृपा से रावण को आशीर्वाद मिला।

आज भी यह परंपरा जीवित है, और श्रद्धालु भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कांवड़ में गंगाजल भरकर उसे कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं। इस यात्रा में भक्तों की श्रद्धा और विश्वास की कोई सीमा नहीं होती, और वे अपनी कठिन यात्रा पूरी कर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद ही अपनी यात्रा समाप्त करते हैं।

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