कोरोना की सुपारी.. गणेश जी ने ली, पता है कैसे?: Opinion on Coronavirus
किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना के लिए गणेश जी को सबसे पहले मनाया जाता है। बचपन में जब मां किसी भी पर्व, उत्सव, तीज-त्यौहार पर अवसरानुकूल व्रत-उपवास से जुड़ी कथा सुनाती थी, तब विनायक जी की स्तुति अथवा कथा अनिवार्य रूप से कहती थी। आज भी हिन्दू धर्म में अनिवार्य नियम के तहत ऐसा किया जाता है। किवदंती कहूं या परम्परा, मान्यता अथवा विश्वास, लेकिन यह धारणा अटल है कि गणेश जी को सबसे पहले मना लीजिए, उनके माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को मनाया जा सकता है।
नई दिल्ली: 21वीं सदी में ठीक वैसे ही जैसे राजा तक पहुंचने के लिए मंत्री, मंत्रियों तक पहुंचने के लिए उनके संतरी और उच्च अधिकारियों तक पहुंचने के लिए उनके निजी सचिवों की शरण में जाना पड़ता है। इस रिवाज, आस्था और विश्वास की जड़ में छुपा मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक कारण तो निरक्षर धार्मिक माँ आज तक मुझे नहीं समझा पाई, लेकिन ऐसा किया जाना शुभ एवं मंगल के लिए आवश्यक है, इस बात को चेतन-अवचेतन मस्तिष्क में अवश्य बैठा दिया।
पाठक सोच रहे होंगे, सम्पूर्ण विश्व जब "कोरोना वाइरस" की उत्पत्ति, उसके पनपने की गति और उसके अंत की युक्ति में उलझा है, तब लेखिका अचानक गणपति स्तुति की याद क्यों दिला रही है ?
भारत के प्रधान सेवक द्वारा सम्पूर्ण देश में 21 दिन के लॉकडाउन की अपील एवं सांकेतिक चेतावनी के तुरंत बाद सभी ने आर्थिक पैकेज की घोषणा के विषय में जानने की आतुरता दिखाई। केंद्र एवं राज्य सरकारों ने भी करोड़ों के आर्थिक पैकेजों की घोषणा करने में विलम्ब नही किया।
इस कदम की वर्तमान राजनीति में अभूतपूर्व उपलब्धि यह रही कि, देश के प्रतिपक्ष के सबसे महत्वपूर्ण नेता राहुल गांधी ने भी ‘छत्तीस का आंकड़ा’ भुलाकर प्रधानसेवक की प्रशंसा की। जिस समय देश-विदेश में तथाकथित शैक्षिक बुद्धजीवियों द्वारा प्रधान सेवक के इस कठोर निर्णय तथा सरकारों द्वारा उदघोषित बड़े आर्थिक पैकेजों का पोस्टमार्टम किया जा रहा था, ठीक उसी वक़्त मुझे अचानक भगवान विध्नहर्ता याद आन पड़ी।
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अवसर के अनुरुप ईश्वर का स्मरण और उनके अस्तित्व की अवहेलना करना मानवीय स्वभाव है लेकिन मेरे द्वारा उन्हें याद किए जाने के पीछे गहन चिंतन था। सरकार द्वारा मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च अर्थात सभी धार्मिक स्थलों को प्राणियों में श्रेष्ठ कहे जाने मनुष्यों के दर्शनार्थ बंद कर दिए जाने का आदेश पारित कर दिया गया। मात्र भगवान के नामित दूतों (पुजारी, मौलवी, ग्रंथी और पादरी) को ही उनकी सेवा-चाकरी निमित्त उनके सानिध्य में रहने की छूट सरकार ने दी। अपवाद स्वरूप जहाँ पर धर्म तथा राजनीति के कुछ ठेकेदारों ने धर्मभीरु जनता को अपने भावनात्मक भड़काऊ भाषणों से उत्तेजित करके भगवान के घर एकत्रित किया, वहाँ पर पुलिस-प्रशासन ने दंडात्मक कार्यवाही करते हुए उन्हें घर का रास्ता दिखा दिया। सृष्टि के रचियता को उसके ही घर में लॉकडाउन का पालन करने के लिए सरकार के आदेशों ने बाध्य कर दिया। समस्त धर्मों के भगवानों के प्रतिनिधियों ने भी आपसी प्रतिस्पर्धा एवं श्रेष्ठता के झगड़े में पड़े बिना आत्मानुशासन का परिचय देते हुए अपने-अपने देवालयों के बाहर लक्ष्मण रेखा खींच दी।
यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन प्रधान सेवक ने ईश्वर के इन नामित धार्मिक देवदूतों को निर्देश और आदेश नहीं दिया कि वे अपने-अपने आराध्य इष्ट (देवी-देवताओं, अल्लाह, गुरुग्रंथ साहब और ईसा-मसीह) से आग्रह करें कि, ‘स्वयं की रचना जिसमें मनुष्य को प्राणी जगत में श्रेष्ठता प्रदान की गई है, उसके अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी हुंडी का ताला खोलें’ गहन चिंतन के निष्कर्ष से बुद्धि के पट (दरवाजा) खुले, तब समझ में आया कि प्रधान सेवक की रगों में भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म रची-बसी है।
देवालयों को बंद करवाने के पीछे की मंशा और आर्थिक सहायता नहीं मांगने का मर्म भी अब समझ में आ रहा है। सत्ता की बागडोर संभालने वाले प्रधान सेवक ने राष्ट्रहित और मानवता की रक्षा के लिए कर्तव्यों के आधीन होकर देवस्थानों के द्वार बंद करने का आदेश तो दे दिया लेकिन ब्रह्मांड के स्वामी परम-पिता से उनकी ही संतति के लिए, अकूत धन-संपदा से भरी हुई तिजोरियों के ताले खोल देने का आग्रह सार्वजनिक रूप से वे कैसे करते? यही तो भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म है। एक ओर मन ही मन गणपति का स्मरण किया, दूसरी ओर सिद्धि विनायक से सेवार्थ भोजन व्यवस्था, धनदान तथा गुरुद्वारों एवं मंदिरों से आर्थिक सहयोग एवं मानवीय सेवाओं की सरिता फूट पड़ी।
अब आवश्यकता इस बात की है, कि शासन के सभी तंत्र कर-दाताओं के धन, दान-दाताओं के परोपकार, समाज-सेवी संस्थाओं के उपकार तथा मानवता की रक्षार्थ तन-मन-धन तथा परिश्रम से व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से जुड़े लोगों का भरोसा कायम रखें। आर्थिक योगदानों का ईमानदार ट्रस्टी की भांति पारदर्शिता के साथ वैश्विक आपदा की घड़ी में समय रहते सदुपयोग किया जाना आवश्यक है।
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फाइलों में उलझने की बजाय भूखे, बेघर, बेबस, लाचार और निर्दोष निराश्रित जनता के लिए त्वरित सहयोग, सहायता और राहत सुनिश्चित करें। विपदा के समय सहायतार्थ अग्रिम पंक्ति में खड़े लोगों को देवदूतों की उपमा देना कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगा तथापि कतिपय असंवेदनशील पाखंडी राजनेताओं, जमाखोर व्यापारियों, निर्लज्ज अधिकारियों और लालची कर्मचारियों की उदासीनता और लापरवाही का भान विध्नहर्ता को भी होगा। खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कल से बृहस्पति ग्रह की दिशा में अनुकूल परिवर्तन आया है जिसके फलस्वरूप गणपति जी की कृपा से विश्व शीघ्र ही इस “कोरोना वाइरस” नामक भयावह महामारी से मुक्त एवं स्वस्थ होगा। विश्वास है, हम होंगे कामयाब, पूरा है विश्वास, होंगे कामयाब एक दिन..
(लेखिका प्रो. सरोज व्यास, फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, कापसहेड़ा, नई दिल्ली में डायरेक्टर हैं। डॉ. व्यास संपादक, शिक्षिका, कवियत्री और लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका के रूप में भी अपनी पहचान रखती है। ये इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की इंचार्ज भी हैं)