

न्यायमूर्ति वर्मा के संभावित निष्कासन और विपक्षी प्रस्ताव की पृष्ठभूमि में उपराष्ट्रपति धनखड़ का इस्तीफा सामने आया। प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ, लेकिन विवाद गहराया। अब समिति गठन की जिम्मेदारी लोकसभा अध्यक्ष पर है। क्या अगला कदम न्यायपालिका और राजनीति में नया भूचाल लाएगा?
जस्टिस वर्मा (सोर्स इंटरनेट)
New Delhi: संसद में न्यायमूर्ति वर्मा के संभावित निष्कासन की प्रक्रिया और उससे जुड़ा राजनीतिक घटनाक्रम एक नए मोड़ पर पहुँच गया है। राज्यसभा में विपक्ष द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के औपचारिक रूप से स्वीकार न किए जाने और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे के बाद देश की राजनीति में हड़कंप मच गया है। इस पूरे मामले की संवेदनशीलता और गंभीरता को देखते हुए अब सभी की निगाहें लोकसभा अध्यक्ष की अगली कार्रवाई पर टिक गई हैं।
सूत्रों के अनुसार, विपक्षी दलों द्वारा न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ पेश किया गया प्रस्ताव राज्यसभा के सभापति द्वारा औपचारिक रूप से 'एडमिट' नहीं किया गया था। संसदीय प्रक्रिया के अनुसार, किसी प्रस्ताव पर बहस या विचार-विमर्श से पहले उसका स्वीकार होना अनिवार्य है। ऐसे में प्रस्ताव को वापस लेने की चर्चा भी व्यर्थ हो जाती है।
राज्यसभा में प्रस्ताव के अप्रासंगिक होने के बावजूद, इस मुद्दे ने तब और तूल पकड़ लिया जब सभापति जगदीप धनखड़ ने सार्वजनिक रूप से विपक्ष के प्रस्ताव का जिक्र किया। इस उल्लेख को राजनीतिक हलकों में उन सभी दलों की 'अनौपचारिक सहमति' के उल्लंघन के रूप में देखा गया, जो इस संवेदनशील मुद्दे पर संयम बरतने के पक्ष में थे। यह कदम विपक्ष को भड़काने वाला साबित हुआ और राजनीतिक वातावरण और अधिक तनावपूर्ण हो गया।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि धनखड़ का यह कदम और बाद में दिया गया इस्तीफा, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कई विपक्षी नेताओं ने इस बात पर नाराजगी जताई है कि एकतरफा तरीके से संवेदनशील मुद्दे को चेयर से उठाना सामूहिक राजनीतिक समझ के खिलाफ था।
अब पूरा घटनाक्रम लोकसभा अध्यक्ष के निर्णय पर निर्भर करता है, जो कि इस विवादास्पद मामले में समिति गठन का अगला औपचारिक कदम उठाएंगे। समिति का गठन तभी संभव है जब राज्यसभा की सहमति के साथ लोकसभा अध्यक्ष इस पर आगे बढ़ें। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या समिति बनाई जाती है और अगर हाँ, तो उसमें कौन-कौन सदस्य नामित होते हैं और वह किस दिशा में जांच को आगे बढ़ाती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह सिर्फ एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि राजनीतिक संतुलन और संवेदनशीलता की अग्निपरीक्षा भी है। राज्यसभा में प्रस्ताव खारिज होने और धनखड़ के इस्तीफे के बाद अब गेंद लोकसभा अध्यक्ष के पाले में है। उनकी अगली कार्रवाई इस मुद्दे की दिशा और राजनीतिक प्रभाव को तय करेगी।