

नंदाष्टमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में मां की मूर्तियों का प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान होता है। लोक कलाकार केले के तनों को तराशकर जीवंत मूर्तियां बनाते हैं। मंदिर परिसर भक्तों की भीड़ से भर जाता है। अगले दिन नगर भ्रमण के दौरान मां की झांकियों के साथ हजारों श्रद्धालु चल पड़ते हैं, जिससे यह आयोजन एक जन-सामूहिक उत्सव में बदल जाता है।
प्रोफेसर ललित तिवारी
Nainital: जैसे ही अगस्त का महीना दस्तक देता है, नैनीताल की सुरम्य वादियां श्रद्धा और संस्कृति के रंगों से सराबोर हो उठती हैं। झील नगरी में हर वर्ष की तरह इस बार भी मां नंदा-सुनंदा महोत्सव पूरे उल्लास और भव्यता के साथ मनाया जाएगा। 28 अगस्त से 5 सितंबर 2025 तक चलने वाले इस महोत्सव का यह 123वां वर्ष होगा। जब संपूर्ण नगर मां के जयकारों से गुंजायमान होगा।
कब से मनाया जा रहा यह कार्यक्रम
मां नंदा-सुनंदा कुमाऊं क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। जिनकी आराधना नयना देवी मंदिर में की जाती है। यह महोत्सव वर्ष 1903 से मनाया जा रहा है और 1926 से श्री राम सेवक सभा इसकी परंपरा को आगे बढ़ा रही है। यह आयोजन न सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत और प्रकृति के प्रति सम्मान का भी प्रतीक बन चुका है।
परंपरा और प्रकृति का गहरा संबंध
महोत्सव की सबसे खास बात है मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियों का निर्माण केले के तनों (कदली) से किया जाना। इस परंपरा के पीछे एक प्रेरक पौराणिक कथा है- जब मां पर संकट आया, तब एक केले के पेड़ ने उन्हें बचाया। तभी से कदली को दिव्य स्वरूप माना जाता है। पौराणिक मान्यता यह भी है कि केले में भगवान विष्णु, लक्ष्मी, गणेश और देव गुरु बृहस्पति का वास होता है।
इस विधि के साथ होती है पूजा
कदली का चयन बड़ी सावधानी और श्रद्धा से किया जाता है। जिस पेड़ से मूर्ति बनाई जाती है, उस पर फल नहीं लगे होते। उसकी पत्तियां हरी-भरी और अखंडित होती हैं। मूर्ति निर्माण से पूर्व कदली की विधिपूर्वक पूजा की जाती है। उल्लेखनीय है कि जिस स्थान से कदली लाई जाती है। वहां 21 नए पौधे लगाए जाते हैं। यह परंपरा धार्मिक आस्था के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण का भी सुंदर संदेश देती है।
समर्पण, शिल्प और श्रद्धा की झलक
नंदाष्टमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में मां की मूर्तियों का प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान होता है। लोक कलाकार केले के तनों को तराशकर जीवंत मूर्तियां बनाते हैं। मंदिर परिसर भक्तों की भीड़ से भर जाता है। अगले दिन नगर भ्रमण के दौरान मां की झांकियों के साथ हजारों श्रद्धालु चल पड़ते हैं, जिससे यह आयोजन एक जन-सामूहिक उत्सव में बदल जाता है।
धार्मिकता के साथ वैज्ञानिकता
केले की उपयोगिता सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसमें पोटैशियम, फाइबर, विटामिन्स और एंटीऑक्सीडेंट जैसे पोषक तत्व पाए जाते हैं। यही कारण है कि दक्षिण भारत सहित कई क्षेत्रों में आज भी केले के पत्ते पर भोजन परोसा जाता है।
एक महोत्सव, अनेक संदेश
मां नंदा-सुनंदा का यह महोत्सव सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह प्रकृति, परंपरा और सामाजिक चेतना का जीवंत प्रतीक है। यह आयोजन हमें याद दिलाता है कि जब हम प्रकृति के साथ जुड़ते हैं, तभी हमारी संस्कृति सच्चे रूप में फलती-फूलती है। जब नैनीताल की फिजाओं में "जय मां नंदा सुनंदा" की गूंज सुनाई देती है तो यह सिर्फ श्रद्धा नहीं, बल्कि हमारी साझा विरासत और पर्यावरण के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी का संदेश बन जाती है।