बलरामपुर का गौरव: इतिहास के पन्नों से निकलकर राष्ट्रीय मंच पर पहुंचीं रानी ईश्वरी देवी, गुमनाम वीरांगना को मिला सम्मान

1857 की क्रांति की वीरांगना तुलसीपुर की रानी ईश्वरी देवी की शौर्यगाथा को राष्ट्रीय पहचान मिल रही है। उनकी गाथा भारत के शौर्य प्रतीकों में शामिल होगी और मां पाटेश्वरी विश्वविद्यालय में उनके जीवन पर शोध शुरू किया जाएगा।

Post Published By: Mayank Tawer
Updated : 21 December 2025, 3:43 AM IST

Balrampur: बलरामपुर जिले के तुलसीपुर की धरती से जुड़ी 1857 के स्वाधीनता संग्राम की वीरांगना रानी ईश्वरी देवी को अब राष्ट्रीय स्तर पर नई पहचान मिलने जा रही है। वर्षों तक इतिहास के पन्नों में गुमनाम रहीं रानी ईश्वरी देवी की वीर गाथाओं को अब भारत के शौर्य प्रतीकों में स्थान दिया जाएगा। उनकी शौर्यगाथा राष्ट्रीय प्रेरणास्थल लखनऊ में स्थापित की गई है, जिसका उद्घाटन 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया जाएगा। इसके साथ ही मां पाटेश्वरी विश्वविद्यालय, बलरामपुर में रानी ईश्वरी देवी के जीवन और संघर्ष पर शोध कार्यक्रम की शुरुआत भी की जाएगी।

तुलसीपुर की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से विख्यात रानी ईश्वरी देवी ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत को कड़ी चुनौती दी थी। इतिहासकारों के अनुसार रानी ईश्वरी देवी, जिन्हें रानी राजेश्वरी देवी भी कहा जाता है, अवध मुक्ति संग्राम की एक साहसी लेकिन उपेक्षित वीरांगना रहीं। उनका जीवन संघर्ष, त्याग और बलिदान से भरा रहा, लेकिन उन्हें वह पहचान नहीं मिल सकी जिसकी वे हकदार थी।

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तुलसीपुर, जो वर्तमान में बलरामपुर जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित है, उस समय एक समृद्ध रियासत हुआ करती थी। तुलसीपुर रियासत का विस्तार भारत के साथ-साथ नेपाल के दांग (देवघर) जिले तक फैला हुआ था। 1857 की क्रांति के दौरान अनुचित लगान वसूली और अंग्रेजी अत्याचारों के खिलाफ तुलसीपुर की जनता रानी ईश्वरी देवी के नेतृत्व में विद्रोह पर उतर आई थी।

विद्रोह भड़कते ही अंग्रेजों ने रानी के पति राजा दृगनारायण सिंह को गिरफ्तार कर लखनऊ की बेली गारद जेल में कैद कर दिया और बाद में उनकी हत्या कर दी। राजा की शहादत की खबर मिलते ही तुलसीपुर राज्य में अंग्रेजों के खिलाफ जनाक्रोश और तेज हो गया। इसके बाद रानी ईश्वरी देवी ने स्वयं क्रांतिकारियों की अगुवाई संभाली और अंग्रेजी शासन के खिलाफ खुला मोर्चा खोल दिया। रानी ईश्वरी देवी का साहस अद्वितीय था। वह अपने ढाई वर्ष के मासूम बच्चे को पीठ पर बांधकर घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों से लड़ीं। धीरे-धीरे जब उनकी सेना कमजोर पड़ने लगी तो अंग्रेजों से बचने और संघर्ष जारी रखने के लिए वह अन्य क्रांतिकारियों के साथ सोनार पर्वत के दुर्गम दर्रे से होते हुए नेपाल के दांग क्षेत्र चली गईं।

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इतिहास में उल्लेख है कि रानी ईश्वरी देवी ने बेगम हजरत महल, राजा देवी बख्श सिंह, नाना साहब और बाला राव जैसे कई बड़े क्रांतिकारियों को शरण दी और उनके साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। रानी के नेपाल चले जाने के बाद अंग्रेजों ने तुलसीपुर के महल को ध्वस्त कर दिया। आज भले ही राजपरिवार से जुड़ी अधिकांश स्मृतियां नष्ट हो चुकी हों, लेकिन शिव मंदिर और जोडग्गा पोखरा आज भी रानी की वीरता की गवाही देते हैं।

मां पाटेश्वरी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रविशंकर सिंह ने कहा कि रानी ईश्वरी देवी की गाथा को राष्ट्रीय शौर्य प्रतीकों में शामिल किया जाना पूरे देवी पाटन मंडल के लिए गर्व का विषय है। विश्वविद्यालय इस महान वीरांगना के जीवन पर शोध कार्य शुरू करेगा, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनके साहस और बलिदान से प्रेरणा ले सकें। बलरामपुर फर्स्ट के संयोजक सर्वेश सिंह ने भी इस उपलब्धि पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि रानी ईश्वरी देवी की वीरता को जन-जन तक पहुंचाना आज की आवश्यकता है। वहीं टीम के सुजीत कुमार ने तुलसीपुर में रानी ईश्वरी देवी की प्रतिमा स्थापित कराने के लिए समाज से आगे आने की अपील की है।

Location : 
  • Balrampur

Published : 
  • 21 December 2025, 3:43 AM IST