

आज देशभर में कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार मनाया जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ दो भक्तों की परीक्षा ली,एक धनाढ्य सेठ और दूसरा निर्धन, परंतु निष्ठावान भक्त। एक को अहंकार से और दूसरे को भक्ति से परखा गया। कथा दर्शाती है कि सच्ची भक्ति धन से नहीं, बल्कि समर्पण और निस्वार्थता से जन्म लेती है। यह प्रेरक प्रसंग बताता है कि ईश्वर भक्ति की गहराई को मापते हैं, न कि साधनों को।
कृष्ण और अर्जुन की कथा
Gorakhpur: प्राचीन काल में, मथुरा के निकट एक समृद्ध नगर में भगवान कृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन के साथ दो भक्तों की भक्ति और धैर्य की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया और अर्जुन को भी एक साधारण ब्राह्मण का रूप दिया। दोनों पहले भक्त, एक धनाढ्य सेठ के विशाल भवन की ओर बढ़े।
पहला भक्त: धन का अभिमान
सेठ का भवन सोने-चांदी से सजा था। द्वार पर खड़ा द्वारपाल अपनी छाती चौड़ी किए पहरा दे रहा था। कृष्ण ने सौम्य स्वर में कहा, "हे द्वारपाल, सेठ जी से कहो कि दो ब्राह्मण भिक्षा मांगने आए हैं।" द्वारपाल ने सेठ को सूचना दी और सेठ ने तुरंत दोनों को आदर सहित बुलवाया। उसने स्वादिष्ट भोजन, फल और दक्षिणा भेंट की। कृष्ण और अर्जुन ने भिक्षा स्वीकार की और सेठ के आतिथ्य की प्रशंसा की।
शाम ढलते ही, दोनों ब्राह्मण दोबारा लौटे। इस बार कृष्ण ने कहा, "सेठ जी, हम एक सप्ताह आपके भवन में रहना चाहते हैं। क्या आप हमें भोजन और आश्रय प्रदान करेंगे?" सेठ ने हंसते हुए स्वीकृति दी और कहा, "ब्राह्मण देव, मेरा घर आपका है। जितने दिन चाहें, रहें।" उसने नौकरों को बढ़िया भोजन और आरामदायक कक्ष तैयार करने का आदेश दिया।
समय बीतता गया। सप्ताह महीनों में बदला और महीने एक वर्ष में। सेठ शुरू में प्रसन्न था, पर धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा। एक दिन, जब ब्राह्मणों ने और समय बढ़ाने की बात कही, सेठ का गुस्सा फट पड़ा। वह उस समय पूजा के लिए लोटा लिए जा रहा था। क्रोध में उसने लोटा फेंककर चिल्लाया, "बस! बहुत हो गया! कितना और सहूं? निकल जाओ मेरे घर से!" लोटा सीधे कृष्ण के मस्तक पर लगा और अर्जुन के पैर में चोट आई।
उसी क्षण, ब्राह्मण वेश में कृष्ण ने अपनी मायावी मुस्कान बिखेरी और कहा, "सेठ, तुम्हारा धैर्य टूट गया, पर मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं, तुम्हारा धन इतना बढ़ेगा कि तुम स्वयं को और ईश्वर को भूल जाओगे।" यह कहकर दोनों ब्राह्मण वहां से चले गए। अर्जुन का मन उलझ गया। वह सोचने लगे, "केशव, सेठ ने अपमान किया, फिर भी आपने उसे धन का आशीर्वाद दिया? यह कैसा न्याय है?" कृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, "धैर्य रख, पार्थ। सब स्पष्ट होगा।"
दूसरा भक्त: भक्ति का बल
दोनों ब्राह्मण अब एक गरीब भक्त के छोटे-से कुटिया की ओर बढ़े। वहां एक दंपति रहता था, जो अपनी सादगी और भक्ति के लिए जाना जाता था। उनके पास केवल दो रोटियां, थोड़ा-सा दूध और एक कामधेनु गाय थी, जो उनकी जीविका का आधार थी। जैसे ही ब्राह्मण कुटिया के द्वार पर पहुंचे, दंपति ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और अंदर आमंत्रित किया।
कृष्ण ने कहा, "हम भूखे हैं, पर तुम्हारे पास तो केवल दो रोटियां और थोड़ा दूध है। यह चार लोगों के लिए कैसे पर्याप्त होगा?" भक्त ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "अतिथि देवो भव:। आप हमारे मेहमान हैं। हम चारों मिलकर इसे बांट लेंगे।" उसने रोटियां छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटी और दूध चार कटोरियों में डाला। आश्चर्यजनक रूप से, वह थोड़ा-सा भोजन सभी के लिए पर्याप्त हो गया। कृष्ण और अर्जुन ने भोजन ग्रहण किया और मन ही मन भक्त की निस्वार्थता पर मुग्ध हो गए।
समय बीता। यह प्रक्रिया एक वर्ष तक चली। एक दिन, कृष्ण ने कहा, "भक्त, हम एक और वर्ष तुम्हारे साथ रहना चाहते हैं।" भक्त और उसकी पत्नी ने झुककर कहा, "ब्राह्मण देव, आपका आगमन हमारा सौभाग्य है। हमारी कामधेनु गाय के आशीर्वाद से हमारा गुजारा हो रहा है। आप जब तक चाहें, हमारे साथ रहें। हम कभी नहीं कहेंगे कि आप जाएं।"
कृष्ण की आंखें भावुक हो उठीं। भक्त की निस्वार्थ भक्ति ने उनके हृदय को छू लिया। फिर भी, उन्होंने परीक्षा पूरी करने का निश्चय किया। एक रात, अचानक उठकर कृष्ण ने कहा, "हमें अब जाना होगा।" भक्त ने उनके पैर पकड़ लिए और विनती की, "प्रभु, आप हमें छोड़कर न जाएं।" तभी कृष्ण ने गंभीर स्वर में श्राप दिया, "जा, आज तुम्हारी कामधेनु गाय मर जाएगी।" भक्त दंपति ने यह सुनकर भी शांत भाव से प्रणाम किया और कहा, "जो आपकी इच्छा, प्रभु।"
परीक्षा का रहस्य
कृष्ण और अर्जुन वहां से चले गए। अर्जुन का मन अब और उलझ गया। उन्होंने पूछा, "केशव, सेठ ने अपमान किया, उसे धन मिला। इस भक्त ने इतनी भक्ति दिखाई, फिर भी उसे श्राप? यह क्या माया है?" कृष्ण ने शांत स्वर में कहा, "पार्थ, चलो, मैं तुम्हें सत्य दिखाता हूं।"
कृष्ण ने अर्जुन को स्वर्गलोक की ओर ले गए। वहां उन्होंने देखा कि गरीब भक्त दंपति देवताओं की पंक्ति में खड़े हैं, उनके चेहरे पर शांति और आनंद का प्रकाश है। दूसरी ओर, सेठ नरक लोक में पुत्रों की प्रताड़ना सह रहा था। उसका धन उसकी भक्ति को भ्रष्ट कर चुका था और वह ईश्वर को भूल गया था।
कृष्ण ने समझाया, "पार्थ, सेठ का धन उसकी भक्ति का शत्रु बन गया, इसलिए मैंने उसे और धन दिया ताकि वह अपनी कमजोरी को समझे। लेकिन इस गरीब भक्त की भक्ति इतनी निर्मल थी कि उसकी कामधेनु गाय भी उसके और मेरे बीच बाधा थी। मैंने उसे श्राप देकर उस बंधन को तोड़ा, ताकि वह मेरे और करीब आ सके। सच्ची भक्ति वही है, जो हर परिस्थिति में अडिग रहे।" अर्जुन की आंखें नम हो गईं। उन्होंने कृष्ण के चरणों में सिर झुकाया और कहा, "हे केशव, आपकी लीला अपरंपार है।"