उत्तर प्रदेश में होम्योपैथिक दवाओं की सरकारी खरीद में 15 गुना तक महंगे दामों का अंतर सामने आया है। प्रयागराज, उत्तराखंड और ओडिशा के जेम टेंडर दस्तावेजों में दवाओं की कीमतों में बड़ा फर्क देखा गया है। इस घोटाले पर व्यापारी संगठनों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की है।

होम्योपैथिक दवाओं की खरीद में भेदभाव
Lucknow: उत्तर प्रदेश में होम्योपैथिक दवाओं की सरकारी खरीद के मामले में चौंकाने वाली बात सामने आई है। प्रदेश में दूसरी जगहों के मुकाबले 15 गुना तक महंगी दवाओं की खरीद की गई है। खासकर प्रयागराज, उत्तराखंड और ओडिशा में होम्योपैथिक दवाओं की जेम टेंडर के दस्तावेजों की जांच में दामों में भारी अंतर देखा गया है।
प्रयागराज के शहीद राजा हरि प्रसाद मल राजकीय होम्योपैथी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल और जिला होम्योपैथिक चिकित्सा अधिकारी द्वारा 18 और 19 दिसंबर को जेम पोर्टल पर जारी की गई 67 दवाओं के टेंडर में कई खामियां और सवाल सामने आए हैं। टेंडर में कुछ दवाओं की कीमतें ओडिशा और उत्तराखंड के मुकाबले कई गुना अधिक हैं, जबकि इन दवाओं की स्ट्रेंथ और डाइल्यूशन समान हैं। यह अंतर खासतौर पर उन दवाओं में देखा गया है, जो एक ही श्रेणी और गुणवत्ता की होती हैं।
देशभर में दवाओं की कीमतों में सामान्य तौर पर केवल 8-10 प्रतिशत का फर्क होता है, जो बाजार की सामान्य स्थिति के अनुरूप माना जाता है। लेकिन प्रयागराज, उत्तराखंड और ओडिशा में दवाओं की खरीद के जेम टेंडर दस्तावेज में, कुछ दवाओं के दामों में कई गुना का अंतर सामने आया है। यह अंतर आर्थिक रूप से चौंकाने वाला है और इसे लेकर उद्यमियों ने गंभीर चिंता जताई है। उनका कहना है कि अगर दवाएं एक ही श्रेणी और गुणवत्ता की हैं तो राज्यों के बीच इतनी बड़ी कीमतों का फर्क समझ से बाहर है।
होम्योपैथिक दवाओं के निर्माता हर्बल मैन्युफैक्चरर्स एसो. ने आरोप लगाया है कि दोनों संस्थानों ने प्री-बिड मीटिंग को अनिवार्य बना दिया था, और जो कंपनियां इसमें भाग नहीं लेती थीं, उन्हें बिड प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया था। सूत्रों के अनुसार, यह शर्त अक्सर पहले से तय या पसंदीदा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए लागू की जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि स्वतंत्र निर्माता या छोटे एमएसएमई इकाइयां जो प्रामाणिक दवाएं बनाती हैं, उन्हें इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया था।
एक और बड़ा सवाल यह है कि टेंडर में ब्रांड नेम से दवाएं मांगी गईं, जो सरकारी दवाओं की जरूरी सूची में नहीं होतीं। केंद्र और राज्य सरकार की औषधि खरीद नीति के तहत, ब्रांड नेम दवाओं को प्राथमिकता नहीं दी जाती है। लेकिन इस बार के टेंडर में स्पष्ट रूप से ब्रांड नेम वाली दवाएं शामिल की गई हैं। यह कदम भी सिस्टम की कमजोरियों और संभावित भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है।
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इस पूरे मामले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि छोटे उद्यमी और एमएसएमई इकाइयां जो उच्च गुणवत्ता की दवाएं बनाती हैं, वे कैसे इस टेंडर प्रक्रिया से बाहर हो गईं। दस्तावेजों में दिख रहे इस भेदभाव से यह साफ संकेत मिलता है कि किसी न किसी तरीके से बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है, जबकि छोटे निर्माता महंगे और अनुचित कीमतों पर होने वाली खरीद से बाहर हो रहे हैं।