मिशन एशियाड: बलिदानों की नींव पर कामयाबी की नयी गाथा लिखना चाहती हैं भारतीय महिला हॉकी टीम

डीएन ब्यूरो

किसी ने नौ साल बेरोजगारी का दंश झेला तो किसी ने महज 800 रूपये के लिये अपनी मां को दिन रात मजदूरी करते देखा तो कोई हॉकी स्टिक खरीदने के पैसे नहीं होने के कारण बांस की स्टिक से खेलकर भारतीय टीम तक पहुंची ।पढ़िये डाइनामाइट न्यूज़ की पूरी रिपोर्ट

भारतीय महिला हॉकी टीम
भारतीय महिला हॉकी टीम


नयी दिल्ली: किसी ने नौ साल बेरोजगारी का दंश झेला तो किसी ने महज 800 रूपये के लिये अपनी मां को दिन रात मजदूरी करते देखा तो कोई हॉकी स्टिक खरीदने के पैसे नहीं होने के कारण बांस की स्टिक से खेलकर भारतीय टीम तक पहुंची ।

डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के मुताबिक जिंदगी की जटिलतायें भारतीय महिला हॉकी खिलाड़ियों का अपने खेल पर अटल विश्वास नहीं डिगा सकी । तोक्यो ओलंपिक में इतिहास रचने से एक कदम दूर चौथे स्थान पर रही ये लड़कियां अब 23 सितंबर से शुरू हो रहे हांगझोउ एशियाई खेलों के जरिये ‘मिशन पेरिस ओलंपिक’ की ओर पहला कदम रखने जा रही है लेकिन इनके सफर की नींव में बलिदानों की ऐसी गाथायें हैं जो कदम कदम पर इनकी प्रेरणास्रोत रहीं ।

इसीलिये लक्ष्य को पाने में अपनी इच्छाशक्ति और मानसिक दृढता के लिये किसी ने एशियाई खेलों तक अपना पसंदीदा पिज्जा खाना छोड़ दिया तो किसी ने चाय की लत से तौबा की तो कोई मिठाई नहीं खाने का प्रण लेकर तैयारी कर रही है ।

भारतीय महिला टीम की कप्तान और गोलकीपर सविता पूनिया ने भाषा को दिये इंटरव्यू में कहा ,‘‘तोक्यो के बाद से हमसे उम्मीदें बढी है और इस टीम में पदक जीतने का माद्दा भी है । हम भी यही चाहते हैं कि पिछली बार जो कमी रह गई थी, उसे पूरा करें । पहले एशियाई खेलों के जरिये ओलंपिक के लिये सीधे क्वालीफाई करें और फिर ओलंपिक पदक जीतें ।’’

उन्होंने कहा ,‘‘ हम सभी ने तय किया है कि फिटनेस और इच्छाशक्ति के लिये एशियाई खेलों तक कुछ ना कुछ छोड़ेंगे । मुझे पिज्जा और गोलगप्पे बहुत पसंद है लेकिन मैने प्रण किया है कि अब एशियाई खेलों तक नहीं खाऊंगी ।’’

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपरों में शुमार 33 वर्ष की सविता कामयाबी के पीछे के अपने संघर्ष को भूली नहीं है जब नौ साल तक उसने बेरोजगारी का दुख झेला था ।

उन्होंने बताया ,‘‘ मैने 2008 में सीनियर टीम में पदार्पण किया और 2009 में एशिया कप में रजत पदक जीता । भारतीय टीम में आने के बाद रिश्तेदार, पड़ोसी सभी कहते थे कि नौकरी तो पक्की हो ही जायेगी । मेरी मम्मी बीमार रहती थी लेकिन मुझे खेलने भेजा । मैं 2009 से 2018 तक बेरोजगार रही लेकिन परिवार ने पूरा साथ दिया और मैंने अपना खेल प्रभावित नहीं होने दिया ।’’

हरियाणा के सिरसा की रहने वाली इस अनुभवी खिलाड़ी ने कहा ,‘‘मुझे 2018 में अर्जुन पुरस्कार मिला तो मेरी मम्मी बोली कि बेटा अब जॉब मिल जायेगी । मेरे लिये यह बहुत मुश्किल दौर था । 2014 एशियाई खेल में पदक था , 2016 में ओलंपिक खेली और 2017 एशिया कप में पदक था लेकिन नौकरी नहीं मिली । फिर 2018 में जब साइ में ओलंपियन के लिये नौकरी निकली थी तब मैने सहायक कोच के रूप में जाइन किया ।’’

तोक्यो ओलंपिक के बाद पदोन्नति पाने वाली सविता ने कहा ,‘‘ अब तो हालात बहुत अच्छे हैं और हमारे अच्छे प्रदर्शन से आने वाला समय भी अच्छा होगा ।’’

अपनी मां को 800 रूपये के लिये महीने भर साइकिल की फैक्ट्री में खटते देखने वाली हरियाणा की मिडफील्डर नेहा गोयल के लिये हॉकी परिवार को इस दुर्दशा से निकालने का जरिया बनी ।

उन्होंने कहा ,‘‘ स्कूल में जूते और कपड़ों के लिये मैने हॉकी खेलना शुरू की । मेरी मम्मी और हम सभी साइकिल के पहिये पर तार बांधने का काम करते थे और सौ तार बांधने पर तीन रूपये मिलते थे । महीने के 800 या 1000 रूपये मिलते जिससे घर चलता था । मुझे ट्रेनिंग के लिये गांव से दस किलोमीटर जाना पड़ता था और आटो के 20 रूपये मांगने में भी शर्म आती थी।’’

प्रीतम सिवाच अकादमी में हॉकी का ककहरा सीखने वाली नेहा को 2015 में रेलवे में नौकरी मिली जिसके बाद उसने बहनों की शादी कराई और अपनी मां का काम करना बंद कराया ।

उसने कहा ,‘‘ मुझे भोपाल में एक टूर्नामेंट में पहली बार प्लेयर आफ द मैच पुरस्कार मिला तभी मैने ठान लिया था कि हॉकी के जरिये परिवार के लिये कुछ करना है । मैने कभी नहीं सोचा था कि ओलंपिक खेलूंगी लेकिन अब मेरा लक्ष्य ओलंपिक पदक जीतना है ।’’

नेहा ने कहा ,‘‘ मैने तय किया है कि एशियाई खेलों तक कोई जंक फूड नहीं खाऊंगी । मुझे पिज्जा पसंद है लेकिन अब खेलों के बाद ही ।’’

झारखंड के खूंटी जैसे नक्सल प्रभावित आदिवासी इलाके से आई अनुभवी डिफेंडर निक्की प्रधान के पापा पुलिस में कांस्टेबल थे और इतनी आमदनी नहीं थी कि हॉकी स्टिक खरीद सके लिहाजा उसने बांस को छीलकर स्टिक बनाई और खेलना शुरू किया ।

निक्की ने कहा ,‘‘ हमारे गांव में खेल का मैदान नहीं था और आज भी नहीं है । स्टिक खरीदने के पैसे नहीं थे तो बांस छील कर खेतों या सड़क पर हॉकी खेला करते थे । मैने 2016 में रियो ओलंपिक खेला और अब पेरिस में पदक तक का सफर तय करना है । इसके लिये हम एशियाई खेलों के जरिये ही सीधे क्वालीफाई करने की कोशिश करेंगे ।’’

चाय की शौकीन निक्की दिन में आठ दस कप तो आराम से पी जाती थी लेकिन अब अपनी इस आदत से उन्होंने तौबा कर ली है । उन्होंने कहा ,‘‘ मैं बहुत चाय पीती थी । जब मिल जाये तब लेकिन अब मैने तय किया है कि एशियाई खेलों के बाद ही पियूंगी ।’’

भारतीय हॉकी की नर्सरी कहे जाने वाले ओडिशा के सुंदरगढ जिले की दीप ग्रेस इक्का ने एशियाई खेलों तक मिठाई नहीं खाने का फैसला किया है । उन्होंने कहा ,‘‘ मुझे मीठा पसंद है लेकिन अब नहीं खा रही हूं । हम सभी का फोकस पूरी तरह से हांगझोउ खेलों पर है और कड़े अभ्यास के साथ उस मिशन को पूरा करेंगे जो तोक्यो में अधूरा रह गया था ।’’

उन्होंने कहा ,‘‘ मैंने सुंदरगढ में हॉकी का गौरव देखा है और ओलंपिक पदक के साथ मैं इसका हिस्सा बनना चाहती हूं । परिवार का , अपने जिले का और देश का नाम रोशन करना चाहती हूं ।’’

एशियाई खेलों में महिला हॉकी 1982 से शुरू हुई और भारत ने पहली बार इकलौता स्वर्ण पदक जीता ।उसके बाद से टीम ने दो रजत (1998, 2018) और तीन कांस्य (1986, 2006, 2014) पदक अपने नाम किये । एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम ओलंपिक के लिये क्वालीफाई करती है ।

 










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