Exclusive Interview: चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जानिये क्या बोले भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त

डीएन ब्यूरो

निर्वाचन आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर उठते रहे सवालों के बीच उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है कि प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) की एक समिति की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति की जाएगी। डाइनामाइट न्यूज़ की रिपोर्ट पर पढ़ें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का इंटरव्यू

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत


नयी दिल्ली: निर्वाचन आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर उठते रहे सवालों के बीच उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है कि प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) की एक समिति की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति की जाएगी।

शीर्ष अदालत के इस फैसले से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत से पांच सवाल’’ और उनके जवाब:-

सवाल: सीईसी और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में उच्चतम न्यायालय के फैसले की आप कैसे व्याख्या करेंगे?

जवाब: संविधान में अनुच्छेद 324 (दो) के तहत पहले से ही व्यवस्था है कि संसद जब तक इस बारे में कानून नहीं बनाती, तब तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे। अब चूंकि सात दशकों में कानून नहीं बना तो उच्चतम न्यायालय ने यह रास्ता निकाला है कि संसद अगर इस संबंध में कानून नहीं बनाती है तो कम से कम उन पर एक दबाव कायम रहेगा। इससे अंतर इतना होगा कि सरकार को अब सोचना पड़ेगा कि उसके लिए कौन सा विकल्प अच्छा है- कानून बना लेना अच्छा है या शीर्ष अदालत ने जो समिति बनाई है उसी के अनुसार नियुक्ति करनी है। इसके लिए सरकार को समय भी पर्याप्त मिल रहा है, क्योंकि पहली नियुक्ति फरवरी 2024 में करनी है। इस प्रकार फैसले में ऐतिहासिक तो कुछ नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि इससे संविधान की मंशा है पूरी होती दिख रही है।

सवाल: क्या चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण गोयल की नियुक्ति की प्रक्रिया इस फैसले के प्रमुख कारणों में से एक रही, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने इस बारे में ‘‘कुछ प्रासंगिक सवाल’’ उठाए हैं?

जवाब: यह तो आप को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से ही पूछना होगा कि क्या कारण रहा। मैं कैसे बता सकता हूं?

सवाल: इस फैसले ने एक तरीके से नियुक्ति संबंधी सरकार की शक्ति समाप्त कर दी है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच पहले से जारी गतिरोध की पृष्ठभूमि में आप इस फैसले का क्या असर देखते हैं?

जवाब: हमारे संविधान में प्रजातंत्र के सुचारू संचालन के लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों का बंटवारा स्पष्ट तौर पर किया गया है। तीनों की अलग-अलग शक्तियां हैं, फिर भी सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहे, यह संभव नहीं होता है। किताबी ज्ञान अलग होता है और प्रायोगिक ज्ञान अलग। जब चीजें प्रायोगिक रूप में होती हैं तो उसमें एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण की उत्कंठा होती है। ऐसी स्थिति हर तरफ बनती है। यह कोई बुराई नहीं है। इसे मैं जीवंत लोकतंत्र का एक बहुत ही अच्छा संकेत मानता हूं। न्यायपालिका और कार्यपालिका जानकार और सशक्त हैं। विधायिका भी न तो अतिक्रमण होने दे रही है और न ही वह किसी को दबा रही है। ऐसी परिस्थिति दिखाती है कि हमारा लोकतंत्र बहुत परिपक्व व सुदृढ़ होता जा रहा है। टकराव नहीं होगा, तो पता कैसे चलेगा कि लोकतंत्र सुदृढ़ है।

सवाल: चुनाव सुधार की दिशा में चुनावी बॉण्ड भी एक बड़ा विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। इस बारे में आपकी क्या राय है?

जवाब: चुनाव सुधार किसी भी लोकतंत्र के लिए एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए, क्योंकि हर चुनाव में राजनीतिक दल, उम्मीदवार और दूसरे हितधारक नयी-नयी चुनौतियां पेश करते रहते हैं। आयोग इन चुनौतियों का सामना करते हुए निष्पक्ष चुनाव कराता है। रही बात चुनावी बॉण्ड की, तो इस पर निर्वाचन आयोग ने शुरुआत में ही विरोध दर्ज कराया था। वर्ष 2017 में ही कहा गया था कि इस योजना से चुनाव अभियान के वित्तपोषण में पारदर्शिता का अभाव हो जाएगा। फर्जी कंपनियां भी इसमें दान कर सकती हैं और विदेशी धन भी आ सकता है। कानून के विपरीत होने के बावजूद आयोग इसका कोई इलाज नहीं कर सकेगा। कुछ चीजें ऐसी होती हैं, चाहे वह खेलकूद हो या चुनाव, जब तक आप पूरी तरह आश्वस्त न हो जाएं कि इसमें गड़बड़ी हो रही है और इसे रोका जाना जरूरी है, तब तक उसे ट्रायल के रूप में देखते जाना चाहिए। चुनावी बॉण्ड को पांच साल हो रहे हैं और इस अवधि में किसी भी राजनीतिक दल से इस प्रकार की कोई शिकायत नहीं प्राप्त हुई है, जिससे चिंता हो। पारदर्शिता का अभाव तो बना हुआ है, लेकिन चिंता की बात दिखी नहीं है। चुनाव अभियान में पारदर्शिता जरूरी है। यह मामला फिलहाल उच्चतम न्यायालय में लंबित है। यह तो सर्वोच्च न्यायालय की तय करेगा कि इस मुद्दे पर किस तरीके से आगे बढ़ना है।

सवाल: फरवरी 2024 में निर्वाचन आयोग में नियुक्ति का मामला उठेगा। आप इसका क्या असर देखते हैं, क्योंकि इसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा के चुनाव भी होंगे?

जवाब: इस तरीके की चीजें चुनाव पर कोई असर नहीं डालती हैं। निर्वाचन आयुक्त कहीं बाहर से नहीं आते हैं। वही लोग होते हैं, जो पहले सरकार के अधीन उसकी नीतियों का क्रियान्वयन करते हैं एवं उनका अनुपालन करवाते हैं। वही लोग जब निर्वाचन आयोग में आ जाते हैं तो सरकार से नियमों का पालन करवाते हैं। इसे आपको इस संदर्भ में देखना होगा कि हमारे साथ आजाद हुए बहुत से देश हैं वे आज कहां है और हम कहां हैं। पाकिस्तान कहां है? म्यांमा कहां है? श्रीलंका कहां है? सबकी हालत खराब है। हमारे यहां लोकतंत्र जीवंत एवं सशक्त है। सरकार भी आसानी से बदल जाती है। कोई इसमें गृहयुद्ध या क्रांति जैसी नौबत नहीं आती। चुनाव संपन्न होते ही सारी चीजें शिरोधार्य हो जाती हैं। हमारा लोकतंत्र और चुनावी व्यवस्था दुनिया भर में एक नजीर है। इसलिए सवाल हमेशा उठते रहने चाहिएं। यह स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत है। प्रश्न उठने से यह अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिए कि निर्वाचन आयोग काम नहीं कर रहा है।










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