

भारत के संवैधानिक इतिहास में एक बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उठाए गए 14 सवालों पर विचार करने को तैयार हो गई है। इन सवालों का केंद्रबिंदु है—राज्यपाल और राष्ट्रपति की विधायी प्रक्रिया में भूमिका, उनकी शक्तियों की सीमा और न्यायपालिका की उन पर निगरानी।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (सोर्स इंटरनेट)
नई दिल्ली: भारत के संवैधानिक इतिहास में एक बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उठाए गए 14 सवालों पर विचार करने को तैयार हो गई है। इन सवालों का केंद्रबिंदु है—राज्यपाल और राष्ट्रपति की विधायी प्रक्रिया में भूमिका, उनकी शक्तियों की सीमा और न्यायपालिका की उन पर निगरानी।
सूत्रों के अनुसार, राष्ट्रपति ने ये सवाल सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के संदर्भ में अनुच्छेद 143(1) के तहत उठाए हैं, जिसमें कोर्ट ने राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों की मंजूरी में देरी पर चिंता जताई थी और सुझाव दिया था कि समयसीमा तय होनी चाहिए। इस फैसले ने न केवल कार्यपालिका को बल्कि संवैधानिक व्याख्या को भी एक नई दिशा दी है।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में गठित पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल हैं:
यह पीठ अगस्त मध्य से सुनवाई शुरू करेगी, और इसकी कानूनी और राजनीतिक गूंज दूर तक महसूस की जाएगी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अनुसार, राष्ट्रपति देश के हित में किसी भी कानून या तथ्य से जुड़े "सार्वजनिक महत्व के प्रश्न" पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन उसका असर प्रशासन और कानून निर्माण प्रक्रिया पर गहरा होता है।
राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए 14 सवाल मूलतः इस बात की पड़ताल करते हैं कि क्या राज्यपाल को किसी विधेयक को मंजूरी देने में समयसीमा बाध्य कर सकती है न्यायपालिका?
क्या अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकते हैं? क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत उनकी संवैधानिक शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकता है? इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या अदालतें उन निर्णयों पर "पूर्व-लागू सुनवाई" कर सकती हैं जो अभी लागू नहीं हुए हैं? और क्या केंद्र-राज्य विवादों का अंतिम निपटारा सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के अधिकार में है?
यह मामला केवल विधायी प्रक्रिया की तकनीकी व्याख्या नहीं है, बल्कि यह संविधान के तीनों स्तंभों—कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका—के बीच संतुलन और मर्यादा की नई व्याख्या का द्वार खोल सकता है। सुप्रीम कोर्ट के पहले के निर्णयों में जहां न्यायिक समीक्षा को सर्वोच्चता दी गई है, वहीं कार्यपालिका की स्वायत्तता को लेकर भी स्पष्ट रेखाएं खींची गई हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट इन सवालों पर स्पष्ट और दृढ़ व्याख्या करता है, तो यह भविष्य की केंद्र-राज्य राजनीति, राज्यपाल की भूमिका, राष्ट्रपति की प्रक्रियागत शक्तियों और न्यायपालिका की सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित करेगा।