नई दिल्ली: अक्सर देश के तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच दबे जुबान से मतभेद की खबरें आती रहती हैं लेकिन सोमवार को जो कुछ मुंबई में हुआ वह बेहद हैरान करने वाला है। हुआ यूं कि न्यायपालिका के अब तक के इतिहास में सीजेआई की कुर्सी पर बैठने वाले दूसरे दलित जज जस्टिस बीआर गवई शपथ लेने के चार दिन बाद अपने गृह राज्य महाराष्ट्र के पहले दौरे पर गये। यहां मुंबई में उन्हें बार काउंसिल आफ महाराष्ट्र एंड गोवा के एक कार्यक्रम में भाग लेना था लेकिन जब सीजेआई गवई एअरपोर्ट पर पहुंचे तो तय प्रोटोकाल के मुताबिक उन्हें रिसीव करने राज्य के आला अफसर चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी या पुलिस कमिश्नर नहीं पहुंचे। इन अफसरों का यह कदम पूरी तरह से देश में तय किये गये प्रोटोकाल का उल्लघंन है।
देश के जाने-माने पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश ने अपने स्पेशल शो “The MTA Speaks” में इसका विश्लेषण करते हुए कहा कि, जो मुंबई में हुआ और जिसने न्यायपालिका, कार्यपालिका, और विधायिका के बीच के संतुलन को नए सिरे से परिभाषित किया, यह पूरी तरह से एक गंभीर प्रोटोकॉल का उल्लंघन था और इसमें केवल एक व्यक्ति विशेष का अपमान नहीं, बल्कि न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था का अपमान भी शामिल है।
न्यायपालिका का अपमान
जस्टिस बीआर गवई, जो कि भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले दूसरे दलित और पहले बौद्ध जज हैं, ने शपथ लेने के चार दिन बाद अपने गृह राज्य महाराष्ट्र का दौरा किया। इस दौरान उन्हें बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा के कार्यक्रम में भाग लेना था। जब वह एअरपोर्ट पहुंचे, तो प्रोटोकाल के अनुसार उन्हें रिसीव करने के लिए राज्य के आला अधिकारी, जैसे मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक, वहां उपस्थित नहीं थे। यह पूरी तरह से एक गंभीर प्रोटोकॉल का उल्लंघन और न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था का अपमान है।
क्या चल रहा है इन अफसरों के दिमाग में?
यह प्रश्न उठता है कि इन अधिकारियों ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? क्या यह उनके व्यक्तिगत आत्मविश्वास का मामला था, या उनके ऊपर राजनीतिक दबाव था? उच्च पदों पर बैठे आईएएस और आईपीएस अधिकारियों का आत्मविश्वास अक्सर उन्हें यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि वे शासन के सभी निर्देशों से ऊपर हैं। उन्हें लगता है कि वे अजेय हैं, और उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं होती।
जब इस घटना की जांच की गई तो स्पष्ट हुआ कि न्यायपालिका को अनादर करना किसी भी अधिकारी के जिम्मेवार व्यवहार के खिलाफ है। क्या यह सच में इतनी बड़ी बात नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश की उपस्थिति का कोई महत्व न हो? एक रिपोर्ट्स के अनुसार, दरअसल, यह एक अंतर्निहित समस्या है-लोग राजनीति और प्रभुत्व के खेल को समझते हैं, लेकिन जब बात न्यायपालिका की आती है, तो समझदारी और आपसी सम्मान की बात की जानी चाहिए।
राज्यपाल की चुप्पी…
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण बिंदु है- राज्यपाल की चुप्पी। क्या उन्हें इस मामले का स्वत: संज्ञान नहीं लेना चाहिए था? यदि राज्यपाल स्वयं इस पर ध्यान नहीं देते, तो यह एक गंभीर प्रश्न बनता है। यह न केवल न्यायपालिका का अपमान है, बल्कि एक बड़े राजनीतिक खेल का भी संकेत है, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान किया जाना चाहिए है।
जातिगत मानसिकता का सवाल
इसके अलावा, क्या यह प्रोटोकाल का उल्लंघन जातिगत मानसिकता का उपज है? जस्टिस गवई दलित और बौद्ध पृष्ठभूमि से आते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह- मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक और अन्य अधिकारियों द्वारा की गई चूक- ऐसा महसूस कराता है कि वे किसी तरह से जस्टिस गवई को नीचा दिखाना चाहते थे। यह आरोप बेतुका लग सकता है, लेकिन जनता में इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है, और हमें इसे अनदेखा नहीं करना चाहिए।
सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर इस घटना को लेकर व्यापक प्रतिक्रिया आ रही है। लोग अफसरों की इस हरकत को न केवल गलत मान रहे हैं, बल्कि इसे हमारी संवैधानिक धारा की एक बड़ी गलती भी बता रहे हैं। अगर ये लोग अपने पदों का सम्मान नहीं कर सकते, तो उन्हें उच्च पद पर रहने का अधिकार क्या है? कई यूजर्स ने इसे “सिस्टम का अपमान” करार दिया है।
संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान
जस्टिस गवई ने स्वयं इस पर कहा कि “यह केवल ‘प्रोटोकॉल’ नहीं बल्कि संवैधानिक व्यवहार का विषय है।” जस्टिस गवई का यह कहना आज के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सही हो रहा है। यदि प्रोटोकॉल के उल्लंघन को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो यह भारत के लोकतंत्र की नींव को कमजोर करेगा। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारा संविधान और संस्थाएं आपसी सम्मान और सहयोग पर निर्भर करती हैं।
भारत में विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका के बीच संतुलन और आपसी सम्मान हमेशा एक नाजुक रेखा पर होते हैं। जब कोई एक पक्ष इस संतुलन को तोड़ता है, तो यह न केवल उस विशेष घटना को प्रभावित करता है, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ताने-बाने को भी प्रभावित करता है। जस्टिस गवई ने बताया कि, “यदि न्यायाधीश प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते, तो अब तक संविधान के अनुच्छेद 142 पर चर्चा शुरू हो गई होती।” यह बयान इस बात को स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि नियमों का पालन सभी के लिए आवश्यक है, न कि केवल कुछ व्यक्तियों के लिए।
अधिकारियों की जिम्मेदारी
प्रशासनिक नियमों और प्रोटोकॉल का पालन करना केवल न्यायपालिका या संस्थाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन अधिकारियों की जिम्मेदारी भी है जो सरकार के प्रतिनिधि होते हैं। क्या ये आईएएस और आईपीएस अधिकारी इस घमंड में डूबे रहते हैं कि उन्होंने UPSC की परीक्षा पास कर ली है? उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनका कार्य जनता की सेवा करना है, न कि प्रोटोकॉल का उल्लंघन करके उच्च स्तरीय पद पर बैठे व्यक्तियों का अपमान करना।
अब यह देखना होगा कि महाराष्ट्र की सरकार व्यक्तियों पर किस प्रकार की कार्रवाई करती है। यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं, तो यह सोचने का कारण बनता है कि क्या इस तरह के अधिकारी अपने घमंड में रहते हैं या किसी राजनीतिक दबाव का सामना कर रहे हैं।
जस्टिस गवई ने कहा, “यह केवल प्रोटोकॉल का विषय नहीं है,” यह एक संवैधानिक आवश्यकता है। इतना ही नहीं उन्होंने कहा, यह केवल एक व्यक्तिगत अपमान की कहानी नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र के अस्तित्व की कहानी है। हमें इसे गंभीरता से लेना होगा।

