Site icon Hindi Dynamite News

Uttarakhand: इगास के दीये की लौ विदेशों तक फैली, जानिए कैसे परदेस में जिंदा है पहाड़ की ये अद्भुत परंपरा

लंदन और दुबई में कुछ ऐसा हुआ जिसने पहाड़ की मिट्टी की खुशबू परदेस तक पहुंचा दी। इगास की यह अनोखी खबर जानकर आप सोचेंगे एक छोटा सा त्योहार कैसे बन गया हजारों प्रवासी उत्तराखंडियों के लिए अपनी जड़ों से जुड़ने का जरिया? पूरी कहानी पढ़ें।
Post Published By: ईशा त्यागी
Published:
Uttarakhand: इगास के दीये की लौ विदेशों तक फैली, जानिए कैसे परदेस में जिंदा है पहाड़ की ये अद्भुत परंपरा

New Delhi: उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में हर साल दिवाली के 11 दिन बाद इगास मनाई जाती है, जिसे बूढ़ी दिवाली भी कहा जाता है। यह सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि पहाड़ की पहचान है। अब यही परंपरा विदेशों तक पहुंच चुकी है। लंदन, दुबई, अमेरिका जैसे देशों में बसे प्रवासी उत्तराखंडी अपने-अपने तरीकों से इगास मनाते हैं।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पिछले वर्ष एक अपील में कहा था कि “इगास सिर्फ पर्व नहीं, हमारी सांस्कृतिक जड़ों की निशानी है प्रवासी भाई-बहन इसे जरूर मनाएं।” आइए ऐसे में जानते हैं कि देश के बाहर रहने वाले लोग इस पर्व को कैसे मनाते हैं।

जब पर्व बना कनेक्शन की डोर

विदेशों में बसे उत्तराखंडी परिवारों के लिए इगास घर की याद का प्रतीक बन गई है। दुबई में रहने वाला एक परिवार बताता है कि हम 10-12 परिवार मिलकर दीपक जलाते हैं, गांव की खीर और स्वाली बनाते हैं और साथ ही वीडियो कॉल पर अपने बुजुर्गों को शामिल करते हैं। यही हमारी असली दिवाली है।

क्यों देवभूमि में देर से मनाई जाती है दिवाली? इसके पीछे छिपी है हैरान कर देने वाली दो कहानी, पढ़िए पहाड़ों की अनोखी परंपरा

बता दें कि कई प्रवासी समूह WhatsApp या Zoom मीटिंग्स पर पारंपरिक लोकगीत “भैलो” गाते हैं, वीडियो शेयर करते हैं और बच्चों को गढ़वाली या कुमाऊंनी में कविता बोलने के लिए प्रेरित करते हैं।

इगास के नए रूप

पहाड़ के मशाल और दीयों की जगह अब विदेशों में LED कैंडल्स या टॉर्च से प्रतीकात्मक भैलो मनाया जाता है।
बता दें कि लंदन में रहने वाले उत्तराखंडी समुदाय ने पिछले वर्ष एक “Virtual Igas Night” का आयोजन किया, जिसमें यूके और भारत के परिवारों ने मिलकर लोकगीत गाए और दीप जलाए।

इसी तरह दुबई में भी प्रवासी समूहों ने “इगास मिलन” की शुरुआत की है, जिसमें बच्चे लोक नृत्य सीखते हैं और महिलाएं पारंपरिक व्यंजन प्रतियोगिता करती हैं।

हम जहां भी हैं, पहाड़ हमारे साथ है

देश के बाहर रह रहे लोग कहते हैं कि हम अपने बच्चों को बताते हैं कि ये त्योहार सिर्फ दीपक जलाने का नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी याद रखने का प्रतीक है। रीतु रावत, जो चमोली की रहने वाली हैं और अब वह शारजाह में रहती हैं। वह कहती हैं कि “हम हर साल गांव वालों से वीडियो कॉल पर जुड़ते हैं, जब वे मशाल जलाते हैं तो हम भी अपने बालकनी में दीप रखते हैं।”

उत्तराखंड की 25वीं वर्षगांठ पर धामी सरकार का बड़ा तोहफा, पुलिस कर्मियों को मिलेगा सम्मान और राहत

परंपरा का नया भूगोल

पहाड़ से निकला यह पर्व अब सीमाओं से परे है। Uttarakhand Heaven वेबसाइट के अनुसार, “इगास अब न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और पुनर्स्मरण का पर्व बन चुका है, जो परदेस में रहने वालों के लिए अपनी जड़ों से जुड़ाव का जरिया है।” राज्य सरकार भी अब प्रवासी उत्तराखंडियों से जुड़ने के लिए ‘Global Uttarakhand Connect’ जैसी पहलें कर रही है।

आने वाले समय की इगास

अब सवाल यह नहीं कि इगास कहां मनती है, बल्कि यह है कि कैसे जिंदा है। यह पर्व अब भौगोलिक नहीं, भावनात्मक बन गया है। जहां भी कोई उत्तराखंडी है, वहीं उसका इगास है। बाहर के लोग कहते हैं कि “दीये भले परदेस में जलें, पर लौ अब भी पहाड़ की मिट्टी से उठती है।”

Exit mobile version