

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली में बादल फटने से भारी तबाही मची जिसमें सिर्फ 58 सेकंड में पूरा गांव मलबे में बदल गया। घर, बाजार, होटल और दुकानें सैलाब में बह गए। उत्तरकाशी जिला इस समय कुदरत की भयंकर त्रासदी झेल रहा है।
उत्तरकाशी: उत्तराखंड के उत्तरकाशी में बादल फटने से बड़ी तबाही हुई जिसने सभी को झकझोर कर दिया। 5 अगस्त को धराली में आए जलप्रलय के कारणों का पता लगाने के लिए तमाम भू वैज्ञानिक, वैज्ञानिक इस घटना के पीछे के कारणों को जानने के लिए अलग-अलग कारकों पर रिसर्च कर रहे हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रुड़की के विज्ञानी भी इसकी संभावित वजहों पर अध्ययन कर रहे हैं।
आईआईटी रुड़की के भू-विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर एसपी प्रधान भी शामिल हैं। उनका कहना है कि खीर गंगा में जो सैलाब आया उसे कीचड़ का प्रवाह (मड फ्लो) कहने के बजाय मलबा प्रवाह (डेब्रिज फ्लो) कहना उचित होगा। क्योंकि, उसमें तीव्र गति से पानी के साथ बड़े-बड़े पत्थर आए हैं, जबकि मड फ्लो में पानी के साथ गाद व मिट्टी आती है।
प्रधान बताते हैं कि धराली में 30 से 40 सेकेंड में दो से तीन मिलियन क्यूबिक मीटर मलबा आने की बात सामने आ रही है। भूस्खलन में मटीरियल वेलोसिटी (सामग्री का वेग) एक सेकेंड में पांच मीटर, 60 सेकेंड में 300 मीटर और एक घंटे में 20 से 30 मीटर होता है। अगर मटीरियल वेलोसिटी एक सेकेंड में पांच मीटर से अधिक हो तो उसे डेब्रिज फ्लो कहते हैं। प्रोफेसर प्रधान के अनुसार, मलबे का आकार बड़ा था, इसलिए उसकी गति भी अधिक थी।
उत्तरकाशी के धराली में जलप्रलय बादल फटने, ग्लेशियर झील टूटने, लैंड स्लाइड लेआउट ब्रस्ट या फिर किसी और वजह से आई है, इसको लेकर स्थिति अभी स्पष्ट नहीं हो सकी है। हालांकि, इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर की ओर से जारी नए सेटेलाइट चित्रों के बाद स्थिति धीरे-धीरे स्पष्ट होने की संभावना जताई जा रही है।
एसोसिएट प्रोफेसर एसपी प्रधान बताते हैं कि जमीन के अंदर या चट्टान में पानी अधिक घुस जाता है, तो वह बहुत अधिक सैचुरेट हो जाता है। यानी उसमें और अधिक पानी को समाहित करने की क्षमता नहीं रह जाती। ऐसा मलबा बहुत दूर तक तेजी से बहता हुआ जाता है। ऐसी स्थिति तब आती है, जब लगातार कुछ दिन से वर्षा हो रही हो।
वरिष्ठ भूवैज्ञानिक नवीन जुयाल जो तीन दशकों से उत्तराखंड की भू-आकृति पर शोध कर रहे हैं, उन्होंने इस आपदा का कारण एक हैंगिंग ग्लेशियर में हुए हिमस्खलन को बताया। हैंगिंग ग्लेशियर, उथले गड्ढों में जमा बर्फ के क्षेत्र होते हैं, जो 1850 में लिटिल आइस एज के बाद सिकुड़ गए थे। इनके पीछे छोड़ा गया मोरेन (असंगठित मलबा) कटाव और हिमस्खलन के लिए अत्यंत संवेदनशील होता है।
जुयाल का अनुमान है कि ये तीनों नदियां (खीरगाड़, हर्षिल गाड़ और झाला गाड़) एक समान भू-आकृति से से निकलती है और संभवत इनमें हिमस्खलन हुआ होगा।
No related posts found.