Site icon Hindi Dynamite News

गोरखपुर: मिट्टी की खुशबू पर प्लास्टिक का साया… खत्म होती जा रही कुम्हारों की चाककला, जानें पूरी खबर

कभी गांव की पहचान रही कुम्हारों की चाककला अब आधुनिकता की दौड़ में दम तोड़ती नजर आ रही है। मिट्टी से जीवन गढ़ने वाले हाथ अब बेकारी और बेबसी की कहानी बन गए हैं। एक वक्त था जब इन्हीं हाथों की बनाई दीयों से दीपावली की रातें जगमगाती थीं।
Post Published By: ईशा त्यागी
Published:
गोरखपुर: मिट्टी की खुशबू पर प्लास्टिक का साया… खत्म होती जा रही कुम्हारों की चाककला, जानें पूरी खबर

गोरखपुर (ग़ोला बाजार): कभी गांव की पहचान रही कुम्हारों की चाककला अब आधुनिकता की दौड़ में दम तोड़ती नजर आ रही है। मिट्टी से जीवन गढ़ने वाले हाथ अब बेकारी और बेबसी की कहानी बन गए हैं। एक वक्त था जब इन्हीं हाथों की बनाई दीयों से दीपावली की रातें जगमगाती थीं, और मिट्टी के घड़ों से घरों में ठंडा जल छलकता था। लेकिन अब यह कला सिर्फ लगन और त्योहारों तक सिमट कर रह गई है।

प्लास्टिक झालरों और सस्ते इलेक्ट्रॉनिक सामानों में गुम

जानकारी के मुताबिक, गांवों में जहां कभी मिट्टी के घर, सुराही, नाद, खोना और बर्तन आम दृश्य हुआ करते थे, वहीं अब प्लास्टिक और स्टील ने सबकी जगह ले ली है। दीया, मूर्तियां और खिलौने जो कभी हर आंगन की शोभा थे, अब बाजार की प्लास्टिक झालरों और सस्ते इलेक्ट्रॉनिक सामानों में गुम हो गए हैं। आधुनिकता की चकाचौंध ने कुम्हारी कला की चमक को फीका कर दिया है।

कुम्हारों के चाक पर धूल जमी

सरकार ने कुछ साल पहले रेलवे स्टेशनों पर मिट्टी के कुल्हड़ में चाय देने का आदेश जारी किया था, जिससे कुम्हारों में एक नई उम्मीद जगी थी। उन्हें लगा था कि अब उनकी कला को बाजार मिलेगा, पर यह फैसला कागजों तक ही सीमित रह गया। आज भी चाय कागज और प्लास्टिक के गिलासों में ही परोसी जा रही है, जबकि कुम्हारों के चाक पर धूल जम चुकी है।

अपनी पावर का गलत इस्तेमाल करने वाली दबंग IPS आरती सिंह ने हाईकोर्ट में मांगी माफी, जानें बड़ी वजह

 बच्चों को यह कला अब रोजगा

गोला क्षेत्र के डाड़ी निवासी अमरजीत प्रजापति, शत्रुजीत प्रजापति, सुनिल प्रजापति और राजगढ़ के कलपू-दीपू आज भी अपनी पुश्तैनी कला को जीवित रखे हैं। वे कहते हैं-“सरकारें चाहे किसी की हों, कुम्हारों की सुध लेने वाला कोई नहीं। हमारे बच्चों को यह कला अब रोजगार नहीं, बोझ लगती है।”

गोरखपुर: चंपा देवी पार्क में महिला सम्मान समारोह, मिशन शक्ति 5.0 के तहत बहादुर महिलाओं का हुआ सम्मान

एक समय था जब दीपावली आते ही गांवों से लेकर शहरों तक मिट्टी की मूर्तियां और दीये सजने लगते थे। भोर से ही चाक घूमता था, आवा में मिट्टी पकती थी और हर गली में कुम्हारों की पुकार गूंजती थी। अब वो दृश्य केवल यादों में बाकी हैं। कुम्हारों की यह पुश्तैनी कला आज सरकारी उदासीनता और बाजार की बेरुखी के बीच दम तोड़ रही है।

यदि सरकार वास्तव में “मिट्टी की अर्थव्यवस्था” को संजीवनी देना चाहती है, तो इलेक्ट्रॉनिक चाक, सस्ती मिट्टी, प्रशिक्षण और बाजार उपलब्ध कराना जरूरी है। वरना आने वाले समय में मिट्टी के दीये सिर्फ संग्रहालयों में नजर आएंगे—गांवों की चौखटों पर नहीं।

Exit mobile version