जब 'मौत से ठन गई' थी तो क्या कहा था अटल बिहारी वाजपेयी ने..
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी एक कुशल और करिश्माई राजनेता होने के अलावा एक शानदार कवि भी रहे हैं। उन्होंने आम जीवन के उतार-चढ़ावों को अपनी रचनाओं में बखूबी उतारा है। डाइनामाइट न्यूज़ की स्पेशल रिपोर्ट
नई दिल्ली: देश के पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी राजधानी दिल्ली के एम्स में भर्ती है, जहां उनकी सेहत बेहद चिंताजनक बनी हुई है।
वाजपेयी एक कुशल और करिश्माई राजनेता होने के अलावा एक शानदार कवि भी रहे हैं। उन्होंने आम जीवन के उतार-चढ़ावों को अपनी रचनाओं में बखूबी उतारा है। यहां तक कि संसद में खास मौकों पर वह भाषण की अपेक्षा कविता के जरिये अपनी बात ज्यादा प्रभावकारी तरीके से रखते थे और समूचा विपक्ष समेत सभी सांसद उनकी कविताओं को ध्यान से सुनता था।
वाजपेयी की दो कविताएं खासी प्रसिद्ध है, जो निम्म तरह से है।
1
ठन गई!
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
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मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
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आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
2
‘भारत जीता जागता राष्ट्रपुरुष’
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।