पौराणिक कथा: न्यायिक दोष के कारण मनुष्य योनी में यमराज!!

डीएन ब्यूरो

संदेश: यह आख्यान स्पष्ट करता है कि न्याय के सर्वोच्य आसन पर आसीन व्यक्ति गंभीर हो और उस का दायित्व है कि वह अपने विवेक (स्वविवेक) का कभी त्याग न करे। शास्त्रानुसार स्वविवेक की परिभाषा: "नीति अनुप्राणित ज्ञान ही स्वविवेक है"।

प्रतीकात्मक फोटो
प्रतीकात्मक फोटो


नई दिल्ली: प्राचीन काल में एक अत्यंत कुशल एवं न्यायप्रिय राजा थे | शासन व्यवस्था पर्याप्त सुदृढ़ थी परन्तु अचानक से राज्य में चोरियों की घटना नित्यप्रति दिन बढ़ने लगी | प्रजा में असंतोष एवं क्षोभ रहने लगा | राजा ने इस समस्या के त्वरित समाधान हेतु घोषणा की कि जिस किसी के द्वारा भी चोरों को पकड़ा जायेगा, उसे पारितोष स्वरूप बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएँ दी जायेंगी |

सत्य ही कहा गया है कि कर्म के प्रति निष्ठा का कोई न कोई आधार अवश्य होता है और मनुष्य का मन स्वभावतः चंचल तथा स्वार्थी होता है | विदित है कि भय के बिना प्रीत नहीं, और प्रलोभन से उत्साह में बढ़ोतरी होती है | राजा की घोषणा के उपरांत रात्रि में पहरा देने वाले सैनिकों ने अधिक सतर्कता से चौकसी आरम्भ कर दी| उसी रात सैनिकों ने देखा कि कुछ चोर एक घर से चोरी करके दबे पांव निकले।  सैनिकों ने सर्तकता से उनका पीछा किया, चोर नगर के बाहर एक आश्रम में पहुंचे और वहां पर चुराया हुआ सामान छुपाकर गायब हो गए | पीछा करते हुए सैनिक जब आश्रम में पहुंचे तो एक ऋषि को तपस्या करते हुये पाया | आश्रम अणिमांडव्य ऋषि का था, वे अपना एक हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करने वाले तपोनिष्ठ ब्राह्मण एवं मौनव्रती ऋषि थे तथाउस समय वे तपस्या में तल्लीन थे | सैनिकों ने आश्रम में खोज-बीन की और चोरों द्वारा छिपाए गए चोरी के सामान को बरामद कर लिया | आश्रम में ऋषि अणिमांडव्य के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था, ऐसे में सैनिकों ने समझा कि चोर ने उन्हें छलने के हेतु साधु का भेष धारण किया है |

ऋषि अणिमांडव्य मौनव्रती थे । अपने को चारों ओर सैनिकों से घिरा पाकर भी उसी भांति निशब्द समाधि में स्थिर रहे | सैनिकों ने  ऋषि को चोर समझ कर आश्रम से बंदी बना कर राजमहल में राजा के समक्ष ले गए |  अपनी सफलता पर हर्षित सैनिकों ने राजा को प्रणाम करते हुये कहा- “महाराज अपराधी आपके सम्मुख प्रस्तुत है, हमने इसे चुराए गए धन के साथ बंदी बनाया है, दंड से बचने के लिए ढोंगी ने ऋषि का भेष धारण कर के साधना में तल्लीन होने का प्रपंच रचा किन्तु हमें छल न सका” | राजा ने सैनिकों के वचनों पर विश्वास करते हुये ऋषि को शूली पर चढ़ाये जाने का आदेश दे दिया | आज्ञानुसार चोर के रूप में बंदी बनाये गए ऋषि अणिमांडव्य को उसी समय शूली पर टांग दिया गया | ऋषि योग समाधि में थे । शूली यद्धपि उनके शरीर में चुभ तो गई किन्तु उसका प्रभाव उन पर नहीं हुआ | वे सात दिन तक उसी भांति शूली पर टंगे रहे । जब इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य तथ्य की सूचना राजा को मिली, तब राजा स्वयं उस स्थान पर आये जहाँ पर ऋषि अणिमांडव्य शूली पर टंगे थे |

ऋषि के तेज़ और तपस्वी शरीर को ऐसी अवस्था में देख कर राजा भय एवं ग्लानि से ओत-प्रोत होकर उन्हें दंडवत प्रणाम करते हुये क्षमा-याचना करने लगे और बोले- “ऋषिवर क्षमाप्रार्थी हूँ, अज्ञानता वश आपको दण्डित करने का अक्षम्य अपराध कर बैठा, क्षमादान दीजिये” | शूली से उतारे गए ऋषि अणिमांडव्य ने विनम्र शब्दों में कहा- “राजन इसमें आपका कोई दोष नहीं है, मेरे किसी अपराध के फलस्वरुप मुझे यह दंड मिला है | आप इसके लिए निमित मात्र हैं, मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं, स्वयं को दोषी मानकर व्यथित नहीं होइए | मेरे पाप-पुण्यों का लेखा जोखा यमराज के पास है, यह प्रश्न मुझे यमराज से ही पूछना होगा” | इतना कहकर ऋषि यमलोक को प्रस्थान कर गए | यमराज के सम्मुख प्रस्तुत हो कर प्रणाम करते हुये ऋषि अणिमांडव्य ने उनसे प्रश्न किया- “जहाँ तक मुझे विदित है, बचपन से लेकर आज तक मैंने किसी प्रकार का कोई अपराध, अधर्म और अनैतिक कर्म नहीं किया है, फिर मुझे किस अपराध की सजा मिली” ? प्रति उत्तर में यमराज बोले- “हे ऋषि बचपन में आप तितली समकक्ष अनेक छोटे-छोटे जीवों को पकड़ कर उन्हें शूल (काँटा) चुभोते थे | आपके लिए यह अबोध बाल-क्रीडा थी, किन्तु उन जीवों की पीड़ा असहनीय थी, उसी के परिणाम स्वरूप आपको शूली पर चढ़ाए जाने की असहनीय वेदना को भोगना पड़ा, “जैसी करनी वैसी भरनी” |

यमराज का उत्तर सुनकर शांत एवं गंभीर शब्दों में अणिमांडव्य ऋषि ने कहा- “हे यमराज आप धर्म आसन पर आसीन होने के अधिकारी कदापि नहीं, धर्माधिकारी को धर्म का ज्ञाता होना चाहिए | जिस अपराध के लिए आपने मुझे दण्डित किया, वह न्यायोचित नही है, हमारे दंड विधान में लिखा है कि १४ वर्ष तक की आयु का बालक/बालिका अबोध होते हैं | अत: उन्हें अज्ञानता वश किये गए किसी भी अपराध के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता | इस धर्म आसन पर बैठने के लिए आपको धर्म एवं धर्मनीति की तात्विक जानकारी होना अपेक्षित है, तदुपरांत ही आप इस पद एवं सिंहासन के सही अधिकारी होंगे” | यमराज कुछ निवेदन करते उससे पूर्व ही ऋषि अणिमांडव्य बोले- “मैं आपको शाप  देता हूँ कि आप मनुष्य योनि में दासीपुत्र के रूप में पृथ्वी पर जन्म लें” | राजकुल में जन्म लेते हुये भी जीवन पर्यंत आपको दासी-पुत्र होने का शूल चुभता रहेगा | आप परम ज्ञानी न्यायप्रिय, विवेकशील एवं कर्मशील हैं किन्तु फिर भी आपने दंड निर्धारण में तनिक भी गंभीरता नहीं दिखाई अत: आपके पास समस्त  ज्ञान होते हुये भी आप निर्णय के अधिकार से वंचित रहेंगे | ऋषि अणिमांडव्य के शाप के फलस्वरुप यमराज, विदुर के रूप में राजकुल में जन्म लेते हुये भी दासी-पुत्र कहलाने  के शूल का दंश सहन करते रहे | 

अनुमोदित एवं संशोधित: आचार्य श्री प्रभुदत्त शर्मा  

लेखिका: प्रो. डॉ. सरोज व्यास, राष्ट्रीय अध्यक्षा, महिला प्रकोष्ठ, एसोसिएशन ऑफ ह्यूमन राइट्स', नई दिल्ली
 










संबंधित समाचार