Covid-19: सरकार सच स्वीकार करने से डर क्यों रही है?

डीएन ब्यूरो

मन बहुत व्यथित है। पिछले साल से कई गुना अधिक मन खुद को कचोट रहा है। बार-बार एक ही सवाल यक्ष प्रश्न की तरह दिमाग में कौंध रहा है.. ये आग कब बुझेगी?

एक श्मशान घाट पर जलती चितायें (फाइल फोटो)
एक श्मशान घाट पर जलती चितायें (फाइल फोटो)


नई दिल्ली: विदेशी अखबार इस बात से भरे पड़े हैं कि सरकार और सिस्टम की लापरवाही के चलते भारत में इंसान अपनी जान गंवाने को मजबूर हैं और सरकार है कि आंकड़ों की बाजीगरी में लगी है।

यह जताने और दिखाने को ढ़ोंग किया जा रहा है कि सब कुछ कंट्रोल में है। न तो आक्सीजन की कमी है और न ही अस्पतालों में बेड्स की। 

लोग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि कोरोना संक्रमित उनके परिजन की मौत समय से उपचार न मिलने, आक्सीजन, बेड्स की कमी के चलते हुई है लेकिन सरकार है कि मानने को ही तैयार नहीं।

धमकाने पर उतारु सिस्टम लोगों को गुमराह करने में लगा है, आंकड़े छिपाने में लगा है लेकिन विदेशी अखबार खुलेआम साहस के साथ कह रहे हैं कि जितने आंकड़े दिखाये जा रहे हैं, उससे पांच गुना अधिक लोग सिस्टम के लापरवाही की भेंट चढ़ काल के गाल में समा रहे हैं। 

सवाल यह है कि आखिर सच क्या है? सरकार सच स्वीकार करने से डर क्यों रही है? 

पिछले साल तबलीगी जमात के माथे ठीकरा फोड़ने वाले सिस्टम ने क्यों इस बार चुनावों को नहीं टाला? कितनी बेशर्मी से पश्चिम बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव कराये जा रहे हैं? क्या लोगों की जान से बढ़कर हैं चुनाव?

अनगिनत ऐसे सवाल मुंह बाये खड़े हैं लेकिन सरकार में बैठा कोई नुमाइंदा इसका जवाब देने को तैयार नहीं? अधिक से अधिक इतना जवाब मिलेगा, ये जिम्मेदारी चुनाव आय़ोग की है।

सवाल यह है कि किसे बेवकूफ बनाया जा रहा है? बीस साल के अपने पत्रकारिता के जीवन में मैंने आधा दर्जन मुख्य निर्वाचन आयुक्तों का इंटरव्यू किया है। किसी भी चुनाव से पहले गृह मंत्रालय समेत तमाम मंत्रालयों में विचार विमर्श किया जाता है। पुलिस फोर्स की उपलब्धता से लेकर धार्मिक त्यौहारों और परीक्षाओं की तारीखों का ध्यान रखा जाता है, फिर तारीखों पर फैसला किया जाता है लेकिन ऐसी कौन सा बड़ी मजबूरी थी कि चुनाव आय़ोग में बैठे रिटायर्ड अफसरों की फौज ने बंगाल में कोरोना काल में 8-8 चरण में चुनाव कराने का फैसला किया? क्या ये चुनाव कम चरण में नहीं कराये जाने चाहिये थे? क्या ये चुनाव टाले नहीं जा सकते थे? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हर देशवासी चाहता है लेकिन माकूल जबाव कोई नहीं दे रहा।

उत्तर प्रदेश का हाल तो और भी बुरा है। चार-चार चरण में पंचायत चुनाव की वोटिंग करायी जा रही है। ड्यूटी पर जाने वाले अनगितन सरकारी कर्मी कोरोना पाजिटिव मिल रहे हैं। चुनावी ड्यूटी में लगे कर्मियों की बड़ी संख्य़ा में मौत हो गयी लेकिन यहां भी आंकड़ों की बाजीगरी कर सब कुछ छिपा लिया जा रहा है। आखिर क्यों? किस स्वार्थ में अपने ही लोगों को मौत की भट्ठियों में डाला जा रहा है।

क्या यह सच नहीं कि देश के नेताओं और उनके सिपहसालार अफसरों की चमड़िय़ां इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें लगता है कि कुछ दिन लोग हो-हल्ला मचायेंगे और बाद में सब कुछ भूल जायेंगे। जब वोट देने की बारी आयेगी तो जनता को ये सब कुछ याद ही नहीं रहेगा? शायद यह सच भी है तभी खुलेआम इंसानी जानों को दांव पर लगा चुनाव कराये जा रहे हैं।

जान तो जा ही रही है, जिन गरीबों की जान बच रही है वे इस चिंता से परेशान हुए जा रहे हैं कि आगे की रोजी-रोटी का जुगाड़ कैसे होगा। अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है, नौकरियां जा रही हैं। लॉकडाउन और कर्फ्यू के चलते व्यापारियों का व्यवसाय चौपट हुआ जा रहा है। 

ऐसे में लोगों के इलाज की व्यवस्था न कर पाने वाली सरकार से लोग इतनी तो अपेक्षा कर ही सकते हैं कि कम से कम झूठ तो न बोलें। मौत के आंकड़ों को तो न छिपायें लेकिन सवाल यह है कि मोटी चमड़ी वाले देश के नेताओं और अफसरों का जमीर जागेगा?










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