

बिहार चुनाव नजदीक आते ही सियासी हलचलें तेज हो गई हैं। खगड़िया की अलौली सीट राजनीतिक दलों के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। जातीय समीकरणों, गठजोड़ों और विकास की मांगों के बीच यह सीट जनता की उम्मीदों और राज्य की राजनीति का अहम केंद्र बनकर उभरी है।
बिहार चुनाव को लेकर सरगर्मियां तेज
Bihar Election: जैसे-जैसे बिहार चुनाव करीब आ रहा है, सियासी हलचलें तेज होती जा रही हैं। गठजोड़ों की गूंज, दल बदल की दस्तक और जातीय समीकरणों की जोड़-घटाव के बीच राज्य की कुछ विधानसभा सीटें एक बार फिर सुर्खियों में हैं। खगड़िया जिले की अलौली विधानसभा सीट उन्हीं में से एक है। एक ऐसी सीट जो न केवल राजनीतिक दलों के लिए चुनौती है, बल्कि जनता की बुनियादी ज़रूरतों और उम्मीदों का आइना भी है।
1962 में गठित अलौली सीट, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, लेकिन इसे केवल दलित राजनीति तक सीमित कर देना इसकी राजनीतिक गहराई को कम आंकने जैसा होगा। यहां के जातीय समीकरण इतने बहुपरतीय हैं कि कोई भी राजनीतिक दल सिर्फ एक जाति के सहारे सत्ता तक नहीं पहुंच सकता।
यह जातीय बनावट एक जटिल गणित बनाती है, जहां सिर्फ जाति नहीं, बल्कि गठबंधन की राजनीति, सामाजिक संवाद और स्थानीय मुद्दे जीत-हार तय करते हैं।
कांग्रेस भले ही शुरुआती वर्षों (1962, 1967, 1972, 1980) में यहां सफल रही, लेकिन इस सीट पर असली पकड़ समाजवादी विचारधारा की रही है। अब तक 11 बार समाजवादी दलों ने यहां जीत दर्ज की है, जो इस बात का प्रमाण है कि अलौली केवल वोटों की लड़ाई नहीं, बल्कि विचारधारा की ज़मीन भी रहा है।
2020 में राजद के रामवृक्ष सदा ने जेडीयू की साधना देवी को कड़े मुकाबले में हराया, जिसमें चिराग पासवान के अलगाव ने एक निर्णायक मोड़ दिया। मतों का बिखराव साफ दिखा, जिससे RJD को सीधा फायदा हुआ।
राजनीतिक विश्लेषण से इतर, अगर जनता के नज़रिए से देखा जाए, तो अलौली आज भी उन बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहा है, जिन्हें लेकर हर चुनाव में बड़े-बड़े वादे होते हैं।
यह सब एक ऐसे क्षेत्र की तस्वीर पेश करता है, जो राजनीतिक रूप से जागरूक है लेकिन विकास की दृष्टि से उपेक्षित।
2025 के विधानसभा चुनाव में अलौली फिर से एक टेस्ट केस बनेगा क्या यहां की राजनीति फिर जातीय ध्रुवीकरण और गठबंधन की चालों में उलझेगी या विकास, रोज़गार और पुनर्वास जैसे असली मुद्दे चुनावी बहस के केंद्र में होंगे?
यह तय करना राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता की भी जिम्मेदारी है। अलौली की कहानी सिर्फ एक विधानसभा सीट की नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक, सामाजिक और विकासशील स्थिति की प्रतीक है। जहां जाति एक हकीकत है, लेकिन विकास एक जरूरत, और बदलाव की चाह एक मजबूत भावनात्मक शक्ति।