

झूला भारतीय जीवन-दर्शन, स्त्री संवेदना और भक्ति भाव का प्रतीक है। सावन आते ही यह पारंपरिक उत्सव न केवल उल्लास का अवसर बनता है, बल्कि स्मृति, विरह और आत्मिक आनंद का भी माध्यम बन जाता है। राधा-कृष्ण से लेकर सिया-राम तक, झूला भक्ति और प्रेम की अभिव्यक्ति है। आईये जानते हैं कि सावन में झूले की परंपरा का क्या महत्व है?
झूले की परंपरा (सोर्स-गूगल)
New Delhi: भारतीय संस्कृति में झूला केवल एक मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि एक गहरा भावनात्मक और आध्यात्मिक प्रतीक है। यह भारतीय जीवन-दर्शन की उस अनुभूति को दर्शाता है जिसमें आनंद व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होता है और सच्चा सुख दूसरों को बांटने में निहित है।
सावन और स्त्री संवेदना का प्रतीक
सावन का महीना आते ही जब प्रकृति हरियाली से भर जाती है, तब झूला भारतीय नारी के मन की उड़ान का माध्यम बनता है। यह केवल झूलने की क्रिया नहीं, एक ऐसा अनुभव है जिसमें स्त्री अपने जीवन की यादों, रिश्तों, प्रतीक्षा और प्रेम को एक-एक पींग में समेट लेती है।
झूले की हर गति कभी विरह का संवाद बनती है तो कभी बचपन की मधुर स्मृति। वह झूला जिस पर बैठकर कोई स्त्री मायके की यादों, सखियों की हंसी और प्रेम की प्रतीक्षा को दोहराती है। वह केवल रस्सी और लकड़ी का साधन नहीं, एक जीवित अनुभूति है।
भारतीय लोक परंपराओं में झूला
भारत के विभिन्न राज्यों में झूले से जुड़े उत्सव बड़ी श्रद्धा और उत्साह से मनाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में कजरी, तीज और हरियाली तीज के पर्वों में महिलाएं झूले डालकर सामूहिक गीत-संगीत करती हैं। राजस्थान में यह पर्व सौंदर्य, श्रृंगार और सांस्कृतिक एकता का उत्सव बनता है।
मध्य प्रदेश के मालवा अंचल में झूलन उत्सव, गणगौर और फाग जैसे पर्वों में झूले का विशेष महत्व है। यह केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि सामूहिक स्त्री जीवन का जीवंत चित्रण है, जहां महिलाएं मिलकर जीवन के विविध रंगों को साझा करती हैं।
मातृत्व और बचपन का अनुभव
भारतीय घरों में झूले का आरंभ मां की गोद से होता है। शिशु जब मां की गोद में झूलता है, तब वह पहला प्यार, पहली सुरक्षा और पहला संगीत अनुभव करता है। झूला इस प्रकार भारतीय परिवार और जीवन के आरंभिक संस्कारों से जुड़ा है।
यह अनुभव धीरे-धीरे बदलता है, पर भाव वही रहता है। कभी उपवन में झूले डालकर, कभी पेड़ की शाख पर रस्सियों से बंधे झूले पर बैठकर, स्त्रियां जीवन के उल्लास को जीती हैं।
भक्ति में झूले का स्थान
भगवान श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम प्रसंगों में झूले का चित्रण अत्यंत भावनात्मक और दिव्य रूप में किया गया है। वृंदावन की गलियों में आज भी झूलन उत्सव पर राधा-कृष्ण को झूले पर विराजमान कर झांकी सजाई जाती है। भक्तजन गीत गाते हैं -झूला किन डारो रे…
इसी तरह अयोध्या में सावन के महीने में राम-सीता के झूलने का विशेष उत्सव मनाया जाता है। मणि पर्वत पर भगवान राम जब सिया संग झूला झूलते हैं तो यह भक्ति का शिखर बन जाता है। कनक भवन में गूंजने वाले गीत – झूला धीरे से झुलाओ सुकुमारी सिया हैं, भक्तों के हृदय को पुलकित कर देते हैं।
आधुनिक समय में झूले की स्थिति
वर्तमान समय में झूले की परंपरा शहरों में लगभग लुप्त होती जा रही है। आधुनिक जीवन की व्यस्तता, जगह की कमी और सामाजिक बदलावों ने इन सांस्कृतिक प्रतीकों को धीरे-धीरे पीछे छोड़ दिया है।
लेकिन यह आवश्यक है कि हम अपने पारंपरिक मूल्यों को फिर से पहचानें। झूला केवल एक खेल नहीं, वह हमारी जड़ों से जुड़ा हुआ एक मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अनुभव है। आज जरूरत है इस परंपरा को संजोकर रखने की, ताकि हमारी अगली पीढ़ी भी इस आनंद को महसूस कर सके।