

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जापान यात्रा के दौरान टोक्यो में शोरिंजान दारुमा-जी मंदिर में पारंपरिक दारुम डॉल भेंट की गई। यह डॉल सिर्फ जापानी संस्कृति का प्रतीक नहीं, बल्कि भारत के बोधिधर्म से जुड़ी एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक विरासत है। जानिए दारुम डॉल क्या है, इसका क्या महत्व है और भारत से इसका क्या रिश्ता है।
मोदी को जापान में मिला सौभाग्य का प्रतीक
New Delhi: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों दो दिवसीय जापान यात्रा पर हैं और इस दौरान उन्हें टोक्यो के प्रसिद्ध शोरिंजान दारुमा-जी मंदिर में एक विशेष भेंट दारुम डॉल दी गई। यह जापान की एक पारंपरिक गुड़िया है, जो न केवल वहां की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है, बल्कि भारत से भी इसका गहरा ऐतिहासिक और आध्यात्मिक संबंध जुड़ा हुआ है। शुक्रवार को टोक्यो में मंदिर के मुख्य पुजारी रेव सेइशी हीरोसे ने पीएम मोदी को यह डॉल भेंट की। इस सम्मान को जापान की जनता की ओर से शुभकामनाओं और सौभाग्य के प्रतीक के रूप में देखा गया। लेकिन यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक तोहफा नहीं था, बल्कि इसके पीछे सदियों पुराना भारत-जापान संबंध भी छिपा है।
दारुम डॉल एक गोल, खोखली और बिना हाथ-पैर वाली जापानी गुड़िया है जिसे अक्सर लाल रंग में बनाया जाता है। लाल रंग एशियाई संस्कृतियों में सौभाग्य, सफलता और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस डॉल की खास बात यह है कि यह गिरने के बाद खुद-ब-खुद खड़ी हो जाती है। इसलिए इसे जीवन में धैर्य, संघर्ष और पुनः प्रयास का प्रतीक भी माना जाता है। यह डॉल केवल सजावट या संस्कृति की वस्तु नहीं है, बल्कि जापानी जीवन दर्शन का हिस्सा बन चुकी है। जब कोई व्यक्ति अपने जीवन में कोई लक्ष्य तय करता है, तो वह डॉल की एक आंख को रंगता है। जैसे ही वह लक्ष्य पूरा हो जाता है, वह दूसरी आंख भी रंग देता है। यह परंपरा व्यक्ति के संकल्प और सफलता का प्रतीक बन चुकी है।
क्या है दारुम डॉल की खासियत
दारुम डॉल का नाम दारुमा से पड़ा है, जो कि वास्तव में भारतीय बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म का जापानी रूप है। बोधिधर्म छठी शताब्दी में दक्षिण भारत से चीन और फिर जापान गए थे। वहां उन्होंने ध्यान योग (ज़ेन बौद्ध धर्म) की नींव रखी, जिसे आज जापान में ‘दारुमा’ के नाम से जाना जाता है। दारुम डॉल का निर्माण बोधिधर्म के जीवन दर्शन और तपस्या को आधार बनाकर किया गया। जापान में यह माना जाता है कि बोधिधर्म ने नौ वर्षों तक लगातार ध्यान किया था, जिसके कारण उनके हाथ-पैर सुन्न हो गए थे। इसी रूप में उन्हें चित्रित कर दारुम डॉल की परंपरा की शुरुआत हुई। इस प्रकार यह गुड़िया केवल जापानी संस्कृति का हिस्सा नहीं, बल्कि भारत के बौद्ध धर्म और ध्यान साधना से भी गहराई से जुड़ी हुई है।
दारुम डॉल का प्रमुख केंद्र जापान का ताकासाकी शहर है, जहां स्थित है शोरिंजान दारुमा मंदिर, जिसकी स्थापना वर्ष 1697 में हुई थी। यहीं से दारुम डॉल बनाने की परंपरा शुरू हुई। हर वर्ष यहां ‘दारुमा उत्सव’ मनाया जाता है, जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं। लोग नई डॉल खरीदते हैं और अपनी पुरानी डॉल लौटा कर आभार प्रकट करते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी को यह डॉल मिलना सिर्फ कूटनीतिक सम्मान नहीं, बल्कि भारत-जापान के सांस्कृतिक संबंधों की एक मजबूत मिसाल है। यह भेंट इस बात की पुष्टि करती है कि भारत की आध्यात्मिक परंपराएं विश्व भर में कैसे समाहित हुई हैं। बोधिधर्म जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व के माध्यम से दोनों देशों की संस्कृति, ध्यान परंपरा और मानव मूल्यों का आदान-प्रदान आज भी जीवित है।